हे जननि! तव चरण-वंदन वार दूँ तुझ पर ये तन-मन हे जननि! तव चरण वंदन दिव्य है तू इस धरा पर स्वर्ग है चरणों में तेरे तू ही बहती है लहू बन माँ मेरी रग-रग में मेरे धूप जो भव-दु:ख ये सारा तू है छाया, तू ही उपवन हे जननि!... तेरे अमृत-रस-धार से ही नवल जीवन हो सुसिंचित दृष्टि तेरी है कृपामयि वचन प्रति पल प्रेम पूरित तू प्रकृति की सृजन-शक्ति तू प्रकृति का प्रथम चिन्तन हे जननि!... तू ही शक्ति, तू ही दुर्गा तू ही लक्ष्मी, तू ही काली ये सभी हैं रूप तेरे तू ही प्रति कण बसने वाली तेरी महिमा सबसे न्यारी गायें प्रतिपल सुर-नर-मुनि जन हे जननि!... है अभागा पुरुष वह जो प्रेम से सिंचित न तेरे धैर्य धारे धरा-सी तू चाहे कितने दु:ख घनेरे सोख लेती कष्ट दारुण विष की गर्मी जैसे चंदन हे जननि!...