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अक्तूबर, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

जड़ और चेतन

श्रांत/क्लांत/निश्चल दरवाजे के चौखट पर बैठीं अम्मा! निर्निमेष भाव से एकटक देखे जा रही थीं कड़क/तपती/खड़ी दुपहरी में तपते किन्तु, छाया प्रदान करते टिकोरों से लदे हुए अमोले ...

हम भारतीयों के भी बड़े ठाट होते हैं

हम भारतीयों के भी बड़े ठाट होते हैं, बारह चार की गाड़ी को पहुँचने में बारह आठ होते हैं। समय से कहीं भी हम नहीं पहुँचते, देर से पहुँचना/प्रतीक्षा करवाना/दूसरों का समय नष्ट करना बड़प्पन की निशानी समझते॥ अपना लिया है हमने पाश्चात्य गीत/संगीत/नृत्य/ भाषा-बोली/खान-पान/रहन-सहन, किन्तु, नहीं अपना सके उनकी नियमितता/राष्ट्रीयता/अनुशासन। करते हैं आधुनिकता का पाखण्ड, भरते हैं उच्च सामाजिकता का दम्भ; कहते हैं हमारी सोच नई है, किन्तु, मानवता मर गई है! भूलते जा रहे हैं अपनी उत्कृष्ट सभ्यता/संस्कृति/संस्कार/स्वाभिमान/ माता-पिता-गुरु का मान-सम्मान/ गाँव/समाज/खेत/खलिहान/ देशप्रेम/राष्ट्रसम्मान! अंतर्राष्ट्रीय मंच पर अपनी बात कहने का साहस नहीं कर पाते हैं, गली-नुक्कड़ पर भाषणबाजी करते जाति-धर्म के नाम पर लोगों को भड़काते/आग लगाते हैं। नहीं समझते हैं कि कश्मीर/लेह/लद्दाख दे देने में नहीं है कोई बड़ाई, यह कोई त्याग नहीं है यह तो है कदराई। अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है समय है, सँभल जाओ; अरे वो सुबह के भूले बुद्धू शाम को तो घर आओ!

मैं नारी हूँ !

मैं नारी हूँ ! विधाता की अनुपम सृष्टि/ ममतामयी दृष्टि/ भावनाओं की वृष्टि। मैं जीवनदायिनी पालक/पोषक हूँ, सारे दुखों की अवशोषक हूँ । प्रेम की परिभाषा हूँ, ज्ञानियों की जिज्ञ...

गाँधीजी को एक संक्षिप्त रिपोर्ट

गाँधी तेरे देश का, हो गया बंटाधार। जित देखो तित व्याप्त है, झूठ और भ्रष्ट्राचार॥ झूठ और भ्रष्ट्राचार, द्वेष, हिंसा, बेईमानी, शहर-गाँव की बाबा तेरे यही कहानी॥ खूनी हो गई खाकी, चोर हो गई खादी, बंटाधार हो गया तेरे देश का गाँधी॥

मुर्गा और मैं

रमुआ के मुर्गे की बाँग सुनकर रोज़ की तरह मेरी नींद खुल गयी। वह एकदम नियम से सुबह के ठीक साढ़े पाँच बजे बाँग देता था। मैंने घड़ी में पौने छः का अलार्म सेट कर रखा था और पन्द्रह मिनट तक बिस्तर में पड़े रहने के पश्चात् अलार्म की आवाज के साथ ही बिस्तर छोड़ता था। यह सिलसिला कई महीनों से निर्बाध रूप से चला आ रहा था। किन्तु आज मुर्गे को बाँग दिए लगभग आधे घंटे हो गए, अलार्म नहीं बजा। मेरा माथा ठनका। उठकर घड़ी में समय देखा, तो अभी सुबह के साढ़े तीन बज रहे थे। क्रोध से शरीर काँपने लगा। मुर्गे की एक लापरवाही ने पूरी नींद खराब कर दी। जैसे-तैसे सुबह हुई। तैयार होकर ऑफिस पहुँचा, तो पता चला कि मेरी सहायिका ने अचानक छुट्टी ले ली थी। पूरा मूड चौपट हो गया। ऑफिस का जो भी काम था, किसी तरह जल्दी-जल्दी निपटाकर लंच के एक घंटे पश्चात् ही घर के लिए रवाना हो गया। संयोग से बगीचे में ही मुर्गे से मुलाक़ात हो गयी, जो मस्ती में गाना गाते हुए चहलकदमी कर रहा था। उसे देखते ही सारा क्रोध आँखों में उतर आया। किसी तरह अपने-आपको संयमित करते हुए पहुँच गया उसके सामने। वह देखते ही मुस्कराकर बोला - "भैया प्रणाम!...

जय माँ अम्बे!

मेरे मन के अंध तमस में ज्योतिर्मय उतरो || जय जय माँ अम्बे ! जय जय माँ दुर्गे ! नहीं कहीं कुछ मुझमें सुंदर, काजल सा काला सब अन्दर | प्राणों के गहरे गह्वर में करुणामयि उतरो।। जय जय माँ अम्बे ! जय जय माँ दुर्गे ! नहिं जप-योग, न यज्ञ प्रबीना, ज्ञानशून्य मैं सब विधि हीना | ज्ञानचक्षु जागृत कर अम्बे जगमग जग कर दो।। जय जय माँ अम्बे ! जय जय माँ दुर्गे ! जीवन की तुम एक सहारा। शक्ति स्वरूपा जगदाधारा। नवजीवन नवज्योति भरो माँ पापमुक्त कर दो।। जय जय माँ अम्बे ! जय जय माँ दुर्गे !

टीस

तिल-तिल जलते रहते हैं आँसू ढलते रहते हैं स्मृतियों के चित्र-पटल पर दृश्य बदलते रहते हैं गुल्ली-डंडा, चिकई, कबड्डी नानी-दादी की लोरी भाग के घर से खेलने जाना बाबा से चोरी-चोरी माँ-बाबू की प्यार सनी झिड़की को मचलते रहते हैं स्मृतियों के चित्र-पटल पर दृश्य बदलते रहते हैं दादुर की टर्र-टर्र और झींगुर की झन-झन चातक-पपीहा-कोयल-मोर बोलें तो झूमे तन-मन सर्दी-गर्मी-वर्षा ऋतु के चक्र बदलते रहते हैं स्मृतियों के चित्र-पटल पर दृश्य बदलते रहते हैं यादें मन को मथती हैं गाँव की राहें तकती हैं उजड़ी बगियाँ, सूनी गलियाँ आन मिलो अब कहती हैं कजरी-फगुआ, दंगल-मेले पल-पल सालते रहते हैं स्मृतियों के चित्र-पटल पर दृश्य बदलते रहते हैं

प्यासा हूँ मैं!

हाँ, प्यासा हूँ मैं! भटक रहा हूँ खोज में एक बूँद पानी की... आँखों में आस लिए होंठों पर प्यास लिए सागर की गर्त में सहरा के गर्द में नदिया के करारों पर बर्फ के पहाड़ों पर सूखे मैदानों में पथरीली चट्टानों में। भटक रहा हूँ मैं खोज में प्रेम के दो बोल की... ह्रदय में प्यार लिए सपनों का संसार लिए शहरों में, गावों में उफनती भावनावों में दुनिया की भीड़ में जंगल के बीहड़ में अपनों में, परायों में अनजाने सायों में। भटक रहा हूँ मैं खोज में तेरी... आस्था का दीप लिए श्रद्धा और प्रीत लिए अन्तस्थ शिराओं में पहाड़ों की गुफाओं में ग्रंथों के सिद्धांत में अखिल ब्रह्माण्ड में जड़ में, चेतन में विनाश में, सृजन में। भटक रहा हूँ मैं, क्योंकि प्यासा हूँ मैं! - राजेश मिश्र