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संदेश

वसुधैव कुटुंबकम

बात-बात पर रटते रहते  वसुधा एव कुटुम्बकम्। पता नहीं कब टूटेगा भ्रम वसुधा एव कुटुम्बकम्।। शत्रु चतुर्दिक घात लगाए  हम आंखें मूंदें बैठे । घुन बनकर खोखला कर रहे सदियों से घर में पैठे। कायरता का बना आवरण  वसुधा एव कुटुम्बकम्। पता नहीं कब टूटेगा भ्रम वसुधा एव कुटुम्बकम्।। संस्कृति-संस्कृत से पराङ्मुख अति दयनीय दशा में है। डगमग डग मग चला जा रहा धुत निरपेक्ष नशा में है। शास्त्र न माने, किंतु उचारे वसुधा एव कुटुम्बकम्। पता नहीं कब टूटेगा भ्रम वसुधा एव कुटुम्बकम्।। पूरी पृथ्वी ही कुटुंब है पग-पग पर उपदेश करे। निज कुटुंब में अपनों से ही नित-प्रति लेकिन द्वेष करे। भाई दुश्मन, दुश्मन भाई वसुधा एव कुटुम्बकम्। पता नहीं कब टूटेगा भ्रम वसुधा एव कुटुम्बकम्।। - राजेश मिश्र
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यूँ अकारण कुछ न था

रुदित उनका दूर जाना, यूँ अकारण कुछ न था। और मेरा लौट आना, यूँ अकारण कुछ न था। द्रोहियों की भीड़ से जब फौज पर पत्थर चले, भीड़ पर गोली चलाना, यूँ अकारण कुछ न था। हर खुशी हर पल निछावर बाल-बच्चों पर किया, मातु-पितु का रूठ जाना, यूँ अकारण कुछ न था। खेत में दिन-रात खटकर जिंदगी जिनकी कटी, गाँव उनका छोड़ जाना, यूँ अकारण कुछ न था। वही आँगन, चार भाई जन्मकर पल-बढ़ गए, भीत उस आँगन उठाना, यूँ अकारण कुछ न था। आज यदि घर से निकल हिंदू सड़क पर आ गए, धैर्य उनका टूट जाना, यूँ अकारण कुछ न था। जो कभी आँखें मिलाकर बात भी करता न था, आज उसका घर बुलाना, यूँ अकारण कुछ न था। जन्मदात्री से अधिक वात्सल्य जिसका राम पर, ठान हठ वन को पठाना, यूँ अकारण कुछ न था। जन्म भर जो धर्म को बस गालियाँ देता रहा, मंदिरों में सिर नवाना, यूँ अकारण कुछ न था। - राजेश मिश्र 

अनकही ही रह गईं

मौन कितनी ही वफाएँ अनकही ही रह गईं। फलित होकर भी दुआएँ अनकही ही रह गईं। तूलिका अरु कैनवस मेरे लिए हासिल न था, अतः मेरी कल्पनाएँ अनकही ही रह गईं। कहूँ तुमसे मैं कभी साहस जुटा पाया नहीं, मनस् पलती कामनाएँ अनकही ही रह गईं।  हम सुरा में, सुंदरी में रम गए कुछ इस तरह, साधकों की साधनाएँ अनकही ही रह गईं।  तर्क का, कुविचार का व्यभिचार अद्भुत देखकर, स्वस्थ उनकी धारणाएँ अनकही ही रह गईं।  आज जन-दरबार का फिर था हमें न्यौता मिला, पर हमारी समस्याएँ अनकही ही रह गईं।  सहिष्णुता व अहिंसा के व्यूह में हम यूँ फँसे, कुछ हमारी आस्थाएँ अनकही ही रह गईं। भूख से संघर्ष करते रह गए हम उम्र भर, हृदय की मृदु भावनाएँ अनकही ही रह गईं।  जब कभी लिखने चले यादों में ऐसे खो गए,  तुम्हारी कमसिन अदाएँ अनकही ही रह गईं। सोचते थे तुम कहीं रुसवा न हो जाओ प्रिये, जिंदगी की कुछ कथाएँ अनकही ही रह गईं। - राजेश मिश्र

इसी देह में रहती तुम भी

देखो, बस मुझको मत देखो,  खुद को भी देखो मुझमें ही।  इसी देह में मैं भी रहता, इसी देह में रहती तुम भी।। तुमसे पहले एकाकी था  सब सूना-सूना लगता था। भरी सभा हो, भरा मंच हो पर ऊना-ऊना लगता था। एकाकीपन गया तुम्हीं से  तुमसे पूरा खालीपन भी। इसी देह में मैं भी रहता, इसी देह में रहती तुम भी।।१।। सुंदर सुष्ठु सुडौल देह यह  सप्त-धातु से परिपूरित थी। हृष्ट-पुष्ट तन दृष्टि सभी की  अंदर क्या है, कब परिचित थी?  तुमको पा चंचल मन नाचे मधुर-मधुर गाए धड़कन भी। इसी देह में मैं भी रहता, इसी देह में रहती तुम भी।।२।। ये तन केवल साधन ही थे  आज मिले, कल फिर बिछड़ेंगे। जनम-जनम का साथ हमारा कोई तन ले आन मिलेंगे। भाव हमारे यही रहेंगे और यही होंगे चेतन भी। इसी देह में मैं भी रहता, इसी देह में रहती तुम भी।।३।। ऊना = अपूर्ण, अधूरा। - राजेश मिश्र

एक 'कबी'जी की व्यथा

आज सुबह जैसे ही फेसबुक खोला, एक महिला का मित्रता अनुरोध दिखा। प्रोफाइल लॉक थी, फोटो थोड़ा छोटा था और आँखें कुछ कमजोर होने के कारण चेहरा साफ नहीं दिख रहा था। फिर भी इतना अंदाज तो लग ही गया कि कोई उम्रदराज महिला हैं, न कि शिकारी फेसबुक बाला। अतः मित्रता अनुरोध स्वीकार कर लिया।  फोटो को बड़ा करके देखा तो उजड़े बालों वाली, लटके गालों वाली, शुष्क-वक्षा, लंबोदरी देवीजी कुछ जानी-पहचानी सी लगीं। बहुत देर तक सोचता रहा, परन्तु याद नहीं आया कि कहाँ देखा है। अतः दैनिक कार्यों में व्यस्त हो गया। किंतु देवीजी ने पीछा नहीं छोड़ा। उनका चेहरा रह-रहकर विचारों के द्वार पर थपकी देता रहा और मुझसे पूछता रहा—"पहचान कौन?" छुट्टी का दिन था, अतः थोड़ी देर बाद फिर मोबाइल लेकर बैठ गया। फोटो को एक बार फिर बड़ा करके देखा और अचानक एक घटना मस्तिष्क में कौंध गई। कल की ही बात थी। एक मित्र के यहाँ जुटान थी। एक 'कबी' जी भी आए थे। भाई लोग जुटे थे तो पकौड़ी-चाय के साथ हँसी-ठिठोली भी हो रही थी और ठहाके भी गूँज रहे थे। लेकिन 'कबी' जी अनमने-से, दु:ख की चादर ओढ़े, एक कोने में अछूत से बैठे थे, जैसे कोर...

हिंदी हिंदू-सी उदार है

हिंदी हिंदू-सी उदार है। सरल सुलभ सबकी शिकार है। हर आगंतुक को अपनाया, पर देखो दुश्मन हजार हैं। कभी कहीं घुसपैठ से पीड़ित, राजनीति की कहीं मार है। कन्वर्जन के कुटने करते, शब्दों पर प्रतिदिन प्रहार हैं। सब सहकर भी हँसती रहती, सहनशक्ति इसकी अपार है। स्वतंत्रता की सेनानी यह, इसके तेवर धारदार हैं। जिसने पहला शब्द सिखाया, मस्तक नत यह बार-बार है। संस्कृत के नातिन की नातिन, चंदन भारत के लिलार है। - राजेश मिश्र

चले जाना

चन्द दिन और रुक जाओ, चले जाना। जरा मन और बहलाओ, चले जाना।। तुम्हें देखा नहीं अब तक तुम्हें जाना नहीं अब तक जरा मैं देख लूँ तुमको जरा मैं जान लूँ तुमको निकट कुछ और आ जाओ, चले जाना। जरा मन और बहलाओ, चले जाना।। नयन थे राह पर अटके श्रवण चौकस, कहीं खटके कोकिला कूक उठती थी हृदय में हूक उठती थी हृदय मेरे उतर जाओ, चले जाना।  जरा मन और बहलाओ, चले जाना।। जले दिन-रात बरसों से मिले हो बाद बरसों के अगर तुम आज जाओगे कहो, कब लौट आओगे वजह जीने की दे जाओ, चले जाना। जरा मन और बहलाओ, चले जाना।। - राजेश मिश्र