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संदेश

कुंडी फिर भी खटकाऊँगा

तुम चाहे मुझको दुत्कारो, मैं द्वार तुम्हारे आऊँगा। दरवाजा मुँह पर बंद करो, कुंडी फिर भी खटकाऊँगा। यह स्वाभिमान की बात नहीं,  अस्तित्व हमारा संकट में। सारी दुनिया से शेष हुए, सिमटे हैं केवल भारत में। कुछ स्वार्थ-पूर्ति में लिप्त रहे निज नेताओं ने पाप किया। यह देश बँटा पर म्लेच्छों सँग रहने का चिर अभिशाप दिया। तुम जितना इसे नकारोगे, मैं बार-बार दोहराऊंगा। दरवाजा मुँह पर बंद करो, कुंडी फिर भी खटकाऊँगा।।१।। हम सदियों तक परतंत्र रहे, अति अत्याचार हुए हम पर। शासक अब्राहम के वंशज, लूटे काटे हमको जमकर।  इक छोड़ गया, पर तोड़ गया, इक हिस्सा ले भी जमा रहा। जो आस्तीन में पल-पल कर नित दंत विषैले धँसा रहा। तुम स्वीकारो मत स्वीकारो, मैं अरि को अरि बतलाऊँगा।  दरवाजा मुँह पर बंद करो, कुंडी फिर भी खटकाऊँगा।।२।। सन सैंतालिस पश्चात पाक में कितने हिंदू शेष अभी? शलवार पहन ली, जीवित हैं, जो लड़े, रहे वे खेत सभी। इकहत्तर में जिनकी खातिर यह बांग्लादेश बनाया था।  उन सबने कब, किस मौके पर भारत का साथ निभाया था? तुम झूठे सपने देखोगे, मैं विकट सत्य दिखलाऊँगा। दरवाजा मुँह पर बंद करो, कुंडी फिर भी ...
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प्रेम-पथ मनमीत मेरे मिल गए

व्योम-प्रांगण में सितारे खिल गए। प्रेम-पथ मनमीत मेरे मिल गए।। प्यार से देखा, मिले कुछ इस तरह, अधर पर मुसकान दे, ले दिल गए।। व्यर्थ की बकवाद तो करता रहा, पर समय पर होंठ उसके सिल गए।। मेहनताना तय प्रदर्शन पर हुआ, सब निकम्मे काम पर फिर पिल गए।। योग्यता पर जाति यूँ हावी हुई, देश तज परदेश सब काबिल गए।। दूसरों का दर्द ही ढोता रहा, क्या पता कब पाँव मेरे छिल गए।। - राजेश मिश्र

तुमको खोकर खो जायेंगे

गीत हमारे उपजे तुमसे तुममें ही लय हो जायेंगे।। तुमको पाकर पाया खुद को तुमको खोकर खो जायेंगे।। तुमसे ही प्रातः होती है  रात तुम्हारे सँग सोती है रवि-राकेश तुम्हीं से भासित संध्या भी रक्तिम होती है  तुमसे ही उगते हैं तारे बिन तुम सब गुम जायेंगे। तुमको पाकर पाया खुद को तुमको खोकर खो जायेंगे।।१।। तुमसे कलियाँ मुसकाती हैं विकसित होकर इतराती हैं हँसता है यह मधुमय मधुबन भृंगावलियाँ भी गाती हैं सुमन-सुमन सुरभित तुमसे तुम बिन बिन सौरभ हो जाएंगे। तुमको पाकर पाया खुद को तुमको खोकर खो जायेंगे।। तुमसे ही पंछी गाते हैं  पंख तुम्हीं से बल पाते हैं  और तुम्हारा ही संबल ले नभ में निर्भय मंडराते हैं तुमसे ही जगमग जीवन है तुम बिन शव सम हो जायेंगे। तुमको पाकर पाया खुद को तुमको खोकर खो जायेंगे।। - राजेश मिश्र

प्राण मेरा हर चले तुम, प्राण मेरे!।

चिर विरह देकर चले तुम, प्राण मेरे! प्राण मेरा हर चले तुम, प्राण मेरे!। दोष मेरा क्या? भला कुछ तो बताओ, छोड़कर मुझको अकेले यूँ न जाओ। स्वप्न जितने संग मिल हमने सजाये कल्पनाओं के महल जो भी बनाये। भस्म सब कुछ कर चले तुम, प्राण मेरे! प्राण मेरा हर चले तुम, प्राण मेरे!।१।। जो नयन निशि-दिन तुम्हारी राह तकते, भंगिमाओं पर तुम्हारे नत थिरकते। जगत से निर्लिप्त नित तुमको निहारें, कामनायें संपदा सुख त्याग सारे। अश्रु उनमें भर चले तुम, प्राण मेरे! प्राण मेरा हर चले तुम, प्राण मेरे!।२।। हृदय-मंदिर में सदा तुमको बिठाया, भोग तन-मन का सदा तुमको लगाया। किए अर्पित भावना के पुष्प सारे, नित रहा जीवन समर्पित हित तुम्हारे श। भूल क्या? तजकर चले तुम, प्राण मेरे! प्राण मेरा हर चले तुम, प्राण मेरे!।२।। - राजेश मिश्र

आखेटक आँखों से कह दो

आखेटक आँखों से कह दो कुछ तो अब आराम करें। हृदय-हिरण हो बिद्ध तड़पता और न शर संधान करें।। भृकुटि-कमान काम-सी चंचल तीक्ष्ण तीर हावों-भावों के। सन-सन सन-सन चलते रहते  भर देते अनगिन घावों से। निर्दय व्याध दृगों से कह दो थोड़ा तो विश्राम करें।  हृदय-हिरण हो बिद्ध तड़पता और न शर संधान करें।। हृष्ट-पुष्ट कंचन काया पर दृष्टि सहज ही रुक जाती है। मंद-मंद मनमोहक चालें  गजगामिनि! मन ललचाती हैं। आमंत्रक अंगों से कह दो यूँ मत मेरे प्राण हरें। हृदय-हिरण हो बिद्ध तड़पता और न शर संधान करें।। कोमल कलियों-से अधरों पर  मधुर हँसी जब-जब आती है।  तन-मन उपवन को शब्दों के  सौरभ से महका जाती है। मुस्काते होंठों से कह दो बेसुध कर मत ध्यान हरें। हृदय-हिरण हो बिद्ध तड़पता और न शर संधान करें।। - राजेश मिश्र

वानप्रस्थी हो चला पर मन भटकता ही रहा

वानप्रस्थी हो चला पर मन भटकता ही रहा।  कामनाओं के प्रलोभन पर अटकता ही रहा।। दुरदुराकर दूर करता जब कभी आता यहाँ, स्नेह या फिर विवशता, लेकिन फटकता ही रहा।। लड़खड़ाया जब कभी, उसको सँभाला हाथ दे  पर उसी की आँख में हरदम खटकता ही रहा।। मन दिलासा दे रहा था डर नहीं कोई मगर, वह अगर कह दे 'नहीं'? यह दिल धड़कता ही रहा।। विघ्न-बाधाएँ बहुत थीं जिंदगी में हर कदम, किंतु कब जीवन रुका? पल-पल सरकता ही रहा।। विरह का शोला उठा तुमसे बिछड़कर के प्रिये! उम्र तो ढलती गई, पर वह धधकता ही रहा।। - राजेश मिश्र 

शुष्क सरिता का किनारा हो गया हूँ

शुष्क सरिता का किनारा हो गया हूँ। शून्य का खोया सितारा हो गया हूंँ।। मैं सहारा क्या बनूँगा और का? जब स्वयं ही बेसहारा हो गया हूँ।। सगर-पुत्रों! कौन तारेगा तुम्हें? गंग की विपरीत धारा हो गया हूँ।। नासमझ निज झुंड से कटता गया  शत्रुओं का सहज चारा हो गया हूँ।। सूर्य-सा तन तेज सारा ढल गया शाम का गुमसुम नजारा हो गया हूँ।। जिंदगी में और पर आश्रित हुआ  वृद्ध या बालक दुबारा हो गया हूँ।। - राजेश मिश्र