बात-बात पर रटते रहते वसुधा एव कुटुम्बकम्। पता नहीं कब टूटेगा भ्रम वसुधा एव कुटुम्बकम्।। शत्रु चतुर्दिक घात लगाए हम आंखें मूंदें बैठे । घुन बनकर खोखला कर रहे सदियों से घर में पैठे। कायरता का बना आवरण वसुधा एव कुटुम्बकम्। पता नहीं कब टूटेगा भ्रम वसुधा एव कुटुम्बकम्।। संस्कृति-संस्कृत से पराङ्मुख अति दयनीय दशा में है। डगमग डग मग चला जा रहा धुत निरपेक्ष नशा में है। शास्त्र न माने, किंतु उचारे वसुधा एव कुटुम्बकम्। पता नहीं कब टूटेगा भ्रम वसुधा एव कुटुम्बकम्।। पूरी पृथ्वी ही कुटुंब है पग-पग पर उपदेश करे। निज कुटुंब में अपनों से ही नित-प्रति लेकिन द्वेष करे। भाई दुश्मन, दुश्मन भाई वसुधा एव कुटुम्बकम्। पता नहीं कब टूटेगा भ्रम वसुधा एव कुटुम्बकम्।। - राजेश मिश्र
रुदित उनका दूर जाना, यूँ अकारण कुछ न था। और मेरा लौट आना, यूँ अकारण कुछ न था। द्रोहियों की भीड़ से जब फौज पर पत्थर चले, भीड़ पर गोली चलाना, यूँ अकारण कुछ न था। हर खुशी हर पल निछावर बाल-बच्चों पर किया, मातु-पितु का रूठ जाना, यूँ अकारण कुछ न था। खेत में दिन-रात खटकर जिंदगी जिनकी कटी, गाँव उनका छोड़ जाना, यूँ अकारण कुछ न था। वही आँगन, चार भाई जन्मकर पल-बढ़ गए, भीत उस आँगन उठाना, यूँ अकारण कुछ न था। आज यदि घर से निकल हिंदू सड़क पर आ गए, धैर्य उनका टूट जाना, यूँ अकारण कुछ न था। जो कभी आँखें मिलाकर बात भी करता न था, आज उसका घर बुलाना, यूँ अकारण कुछ न था। जन्मदात्री से अधिक वात्सल्य जिसका राम पर, ठान हठ वन को पठाना, यूँ अकारण कुछ न था। जन्म भर जो धर्म को बस गालियाँ देता रहा, मंदिरों में सिर नवाना, यूँ अकारण कुछ न था। - राजेश मिश्र