पुराने घाव मत छेड़ो, अपरिमित कष्ट होता है। अगर कटु सत्य, मत बोलो, अपरिमित कष्ट होता है।। छुवा तुमने गुलों को जब हँसे वे खिलमिलाकरके, न काँटों से प्रिये! लिपटो, अपरिमित कष्ट होता है।। नहीं सम्भव, नहीं कह दो, न झूठे स्वप्न दिखलाओ, न देकर आसरा तोड़ो, अपरिमित कष्ट होता है।। भला है तो भला कह दो, बुरा है तो बुरा कह दो, मगर कुल-जाति मत उघटो, अपरिमित कष्ट होता है।। न हो संगी समय फिर भी अकेले बीत जाता हैं, न अपनाकर कभी छोड़ो, अपरिमित कष्ट होता है।। जिन्होंने थाम कर उँगली सिखाया दौड़ना जग में, न उनसे मुँह कभी मोड़ो, अपरिमित कष्ट होता है।। - राजेश मिश्र
भाईचारे के नकाब में छलती रही अमन की आशा। पीठ में खंजर भोक-भोंक कर चलती रही अमन की आशा।। गंगा की उज्ज्वल धारा के श्यामल यमुना से संगम पर तहजीबों का नाम चलाकर पलती रही अमन की आशा।। श्रुति-पुराण को, धर्म-ध्यान को ऋषि-मुनियों के अगम ज्ञान को झूठ और पाखंड बताकर फलती रही अमन की आशा।। कभी जाति के नाम लड़ाकर कभी कहीं आतंक मचाकर हिंदू-रक्त-तेल पी-पीकर जलती रही अमन की आशा।। बहन बेटियों के गौरव को धर्म बदलकर छत से, बल से सदियों से पैरों के नीचे दलती रही अमन की आशा।। अब भी सोते रह जाओगे लुट जाओगे, मिट जाओगे जाग्रत जन को सदा-सदा से खलती रही अमन की आशा।। - राजेश मिश्र