चुपके-चुपके मुझको देखें,
मैं देखूँ तो छुप जाते हैं।
प्रेम हृदय का दृग से छलके,
कहते-कहते रुक जाते हैं।।
आँखें चञ्चल हिरनी जैसी,
सतत कुलाँचें भरती हैं।
पल को झाँके, पल में भागे,
पल भर सद्य ठहरती है।
खुलती मधुर अधर कलियों पर,
लोलुप भँवरे लुट जाते हैं।
प्रेम हृदय का दृग से छलके,
कहते-कहते रुक जाते हैं।।१।।
कांत-कपोल अरुण आभा से
हृदय-कमल खिल जाता है।
भावों की भावन सुगंध से
मन महमह महकाता है।
दंतावलि-द्युति चकाचौंध पर
लाखों दिनकर झुक जाते हैं।
प्रेम हृदय का दृग से छलके,
कहते-कहते रुक जाते हैं।।२।।
अलकें लोल कलोल निरत नित
अंग-अंग को चूम रहीं।
अन्-अधिकृत अंगों पर जहँ-तहँ
आवारा बन घूम रहीं।
लालायित द्वेषित दृग सबके
मुझ भागी पर उठ जाते हैं।
प्रेम हृदय का दृग से छलके,
कहते-कहते रुक जाते हैं।।३।।
- राजेश मिश्र
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