मनुज स्वभाव, नहीं अचरज है।
मानव हैं हम, द्वेष सहज है।।
निर्बल को जब सबल सताए,
वह प्रतिकार नहीं कर पाए,
मन पीड़ा से भर जाता है,
द्वेष हृदय घर कर जाता है।
वचन कठोर बोलता कोई,
जब औकात तोलता कोई,
व्यक्ति जहाँ जब डर जाता है,
द्वेष हृदय घर कर जाता है।
जब कोई प्रिय वस्तु हमारी,
लगती जो प्राणों से प्यारी,
कोई हमसे हर जाता है,
द्वेष हृदय घर कर जाता है।
जब जीवन दुखमय हो अपना,
सुख बस बन जाए इक सपना,
औरों का सुख खल जाता है,
द्वेष हृदय घर कर जाता है।
कर्महीन जब हम होते हैं,
दैव-दैव करते रोते हैं,
कर्मठ आगे बढ़ जाता है,
द्वेष हृदय घर कर जाता है।
आशंका से त्रस्त रहें जब,
तिरस्कार-दुत्कार सहें जब,
प्रेम हृदय का मर जाता है,
द्वेष हृदय घर कर जाता है।
यद्यपि द्वेष सहज होता है,
किंतु सदा दुखप्रद होता है।
शांति हमारी हर लेता है,
क्रोध-घृणा मन भर देता है।
तिल-तिल हमें जलाता रहता,
रोगी सतत बनाता रहता।
तन-मन को दूषित कर देता,
अंदर विष-ही-विष भर देता।
सुहृद दूर हो जाते सारे,
सुख सपने बन जाते सारे।
कोई निकट नहीं आता है,
यह एकाकी कर जाता है।
सारा ज्ञान नष्ट कर देता।
निर्मल बुद्धि भ्रष्ट कर देता।
पापाचार बढ़ा देता है।
जीवन नर्क बना देता है।
दावानल यह द्वेष सहज है।
इसको तज पाना अचरज है।।
- राजेश मिश्र
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