हमारी संस्कृति और परंपरा में माता-पिता का स्थान सर्वोच्च है, और इन दोनों में भी माता प्रथम पूजनीया है। कहा गया है कि यदि माता और पिता दोनों साथ में बैठे हों तो पहले माता को प्रणाम करना चाहिए, तत्पश्चात पिता को। उल्लेखनीय है कि जब भगवान राम वनगमन के लिए तत्पर हुए तो माता कौशल्या ने उनसे कहा -
जौं केवल पितु आयसु ताता।
तौ जनि जाहु जानि बड़ि माता।।
जौं पितु मातु कहेउ बन जाना।
तौ कानन सत अवध समाना।।
वाल्मीकि रामायण में कहा गया है -
जननीजन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।
स्कंद पुराण में माता के संबंध में उद्धृत है कि -
नास्ति मातृसमा छाया नास्ति मातृसमा गति:। नास्ति मातृसमा त्राण नास्ति मात्सया प्रपा।।
विभिन्न शास्त्र बार-बार माता की महिमा का बखान करते हैं। साथ ही ध्यातव्य है कि माता शब्द केवल जन्मदात्री के लिए रूढ़ नहीं है। इसकी व्यापकता जड़ से चेतन और स्थूल से सूक्ष्म तक सर्वत्र है। इन्हीं असंख्य माताओं में एक माता हमारी भाषा भी है। उदाहरण के लिए संस्कृत भाषा की वंदना करते हुए कहा जाता है कि -
वन्दे संस्कृत मातरम्।
राजभाषा और हमारी मातृभाषा हिंदी भी हमारी इन्ही पूजनीय माताओं में से एक है। भारतवर्ष की अनेकानेक भाषाओं की भाँति हिंदी का भी उद्भव-स्रोत संस्कृत ही है और विकास-क्रम संस्कृत - पालि - प्राकृत - अपभ्रंश - अवहट्ट - खड़ी बोली है।
विदेशी आक्रमणों, मुगलों के आधिपत्य और उर्दू के विकास के साथ-साथ हिंदी में अरबी, फारसी इत्यादि विदेशी भाषाओं के शब्द स्थान पाने लगे। कालांतर में एक योजना के अनुरूप भी हिंदी में संस्कृतनिष्ठ शब्दों को इन विदेशी भाषाओं के शब्दों से विस्थापित किया जाने लगा। एक ओर संस्कृत को अत्यंत कठिन और क्लिष्ट बढ़कर लोगों में उसके प्रति भय और द्वेष पैदा किया गया, तो दूसरी ओर हिंदीभाषियों के बीच हिंदी को माँ (जो कि निस्संदेह है भी) और उर्दू को उनकी मौसी बढताकर दुष्प्रचार किया गया ताकि वे निर्विरोध उर्दू के अस्तित्व को स्वीकार कर लें। साथ ही पत्र-पत्रिकाओं तथा शायरियों और गजलों इत्यादि के माध्यम से उर्दू का खूब प्रचार-प्रसार किया गया। संस्कृत और हिंदी के उत्कृष्ट छंदों को बंधन बढताकर छंदमुक्त कविता का प्रचार-प्रसार हुआ, किंतु वहीं शायरी के लिए बहर में ही लिखना आज भी आवश्यक है। ठीक वैसे ही जैसे घूंघट को पिछड़ेपन तथा स्त्री की स्वतंत्केरता -हनन से जोड़ दिया गया और बुर्के को संस्कृति, धर्म और स्त्री की मर्यादा से।
धीरे-धीरे हिंदी में उर्दू के शब्दों की अधिकता होती गई और इसमें एक बड़ी भूमिका निभाई वामपंथियों और बॉलीवुड के छद्म धर्मनिरपेक्षियों ने। बड़े से बड़ा रचनाकार भी, जो शुद्ध हिंदी में कुछ भी लिखने में समर्थ था, इस चक्रव्यूह में फँसता गया और ख्याति तथा स्वीकार्यता के लोग में उर्दू के प्रयोग की ओर बढ़ता गया। स्थिति ऐसी हो गई कि शुद्ध हिंदी की बात करने वालों को वैसे ही अछूत समझा जाने लगा जैसे हिंदुत्व की बात करने वालों को।
सोशल मीडिया के आगमन के साथ ही नवोदित रचनाकारों और कवियों को अपने आप को व्यक्त करने के लिए एक ऐसा मंच मिला जहां उन्हें पाठक सहज ही सुलभ थे और किसी मंचीय कवि की चाटुकारिता की आवश्यकता नहीं थी। जो लोग साहित्य के क्षेत्र से नहीं जुड़े थे, किंतु हिंदी और साहित्य में जिनकी रुचि थी, ऐसे अनेकानेक रचनाकारों का प्रादुर्भाव हुआ और उनमें से कई तो इतने उत्कृष्ट हुए कि नामधारी मंचीय रचनाकार भी उनके समक्ष पानी भरते दृष्टिगत होने लगे। धीरे-धीरे हिंदी की शुद्धता पर भी चर्चा प्रारंभ हुई और संस्कृत के पुनरुत्थान के प्रयासों तथा हिंदू पुनर्जागरण के साथ-साथ यह बहस आगे बढ़ती गई। आज सोशल मीडिया पर अनेकानेक ऐसे रचनाकार हैं जिनकी भाषा की शुद्धता और विषय वस्तु के अपनी परंपराओं और संस्कृति से जुड़ाव को देखकर मन गद्गद् हो जाता है।
किंतु अभी भी दिल्ली बहुत दूर है और इस दिशा में सफलता हेतु अभी एक लंबी यात्रा तय करनी पड़ेगी। हिंदी के बारे में और हिंदी की शुद्धता के बारे में हमें और अधिक जागरूक होने की आवश्यकता है तथा लोगों को भी इसके प्रति तथा इसके परिणामों के प्रति सचेत करने की आवश्यकता है। गुलामी की मानसिकता से अपने आप को मुक्त करने के लिए तथा आने वाली पीढ़ियों की सोच को सही दिशा देने के लिए भी यह अत्यंत आवश्यक है। आइए हम सब मिलकर इस दिशा में आगे बढ़ें और जहाँ तक हो सके हिंदी की शुद्धता को बनाए रखने के लिए अपना योगदान दें।
- राजेश मिश्र
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