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अहमद चाचा

लन्दन के हीथ्रो एअरपोर्ट से जैसे ही विमान ने उड़ान भरी, श्याम का दिल बल्लियों उछलने लगा. बचपन की स्मृतियाँ एक-एक कर मानस पटल पर उभरने लगीं और जैसे-जैसे विमान आसमान की ऊँचाई की ओर बढ़ता गया, वह आस-पास के वातावरण से बेसुध अतीत में मग्न होता चला गया. माँ की ममता, पिताजी का प्यार, मित्रों के साथ मिलकर धमाचौकड़ी करना, गाँव के खेल, नदी का रेता, हरे-भरे खेत, अनाजों से भरे खलिहान और वहां कार्यरत लोगों की अथक उमंग, तीज त्यौहार की चहल-पहल आदि ह्रदय को रससिक्त करते गए. गाँव के खेलों की बात ही कुछ और है. चिकई, कबड्डी, कूद, कुश्ती, गिल्ली-डंडा, लुका-छिपी, ओल्हा-पाती, कनईल के बीज से गोटी खेलना, कपड़े से बनी हुई गेंद से एक-दूसरे को दौड़ा कर मारना आदि-आदि. मनोरंजन से भरपूर ये स्वास्थ्यप्रद खेल शारीरिक और मानसिक उन्नति तो प्रदान करते ही हैं, इनमें एक पैसे का खर्च भी नहीं होता है. अतः धर्म, जाति, सामाजिक-आर्थिक अवस्था से निरपेक्ष सबके बच्चे सामान रूप से इन्हें खेल सकते हैं. इन सबसे अलग एक सबसे प्यारी चीज़ थी जिसके लिए वह वर्षों व्याकुल रहा, वह थे अहमद चाचा. हिन्दुओं के इस गाँव में एक अहमद चाचा का ही प...

दीये तो रोज जलते हैं, फिर दीपावली क्यों?

दीये तो रोज़ जलते हैं, फिर दीपावली क्यों? इस एक दिन के लिए, इतनी प्रसन्नता/इतनी उतावली क्यों? हाँ, दीये तो रोज़ जलते हैं, किन्तु, अकेले सुदूर, कोने में कहीं सिमटे हुए एक-दूसरे से अलग भयानक अँधेरे में घुटते हुए पल-पल क्षीण होती रोशनी के साथ अन्त की ओर अग्रसर दूसरों को प्रकाशित करने की कोशिश में स्वयं बुझते हुए जहाँ नहीं पहुंचता है एक दीये का प्रकाश दूसरे दीये तक अकेले जलते हैं, अकेले ही बुझ जाते हैं बिना अपनी कोई पहचान छोड़े बिना अपना कोई निशान छोड़े दफ़न हो जाते हैं अतीत के गर्त में खो जाते हैं इतिहास के पन्नों में पर इस एक दिन जलते हैं सारे दीये साथ-साथ एक-दूसरे को प्रकाशित करते हुए एक-दूसरे के प्रकाश से प्रकाशित होते हुए इस जहाँ को जगमगाते हर घर/गाँव/समाज/देश से अँधेरे को भगाते जलते हैं एक साथ और जीत जाते हैं काले घनघोर अँधेरे से आइये, हम भी साथ खड़े हों, साथ चलें साथ बढ़ें, साथ लड़ें मानवता की जंग विजय हमारी ही होगी फिर चारों ओर होगा अमन का उजियारा चारों तरफ होगी सुख-शांति/ प्रेम और सद्भाव सारे भेद-भाव भूलकर मानवता मानवता को ग...