दिव्य अनिंद्य अनूप रूप है, अंग-अंग प्रति उद्दीपन। मधुशाला के मधु-प्याले सा, छलक रहा तेरा यौवन।। दृग-द्वय में मधु मधुर भरा है, मन मेरा लोलुप भँवरा है। मदमाती चितवन पर तेरी सारा मधुवन तज ठहरा है। युगल जलज-लोचन को अर्पित, इस भँवरे का यह जीवन। छलक रहा तेरा यौवन।।१।। कृष्ण कुन्तलों से आती है, चन्द्रवदन-छवि छन-छन कर यों। श्याम सघन घन-ओट से झाँके शरत्पूर्णिमा-शुभ-सुधांशु ज्यों। भींगें सरस सुधा-वर्षा में, मेरे चकित चकोर-नयन। छलक रहा तेरा यौवन।।२।। कमनीया कंचन काया पर, ज्यों बैठा ऋतुराज सिमटकर। सद्य-स्फुट कोमल कलिकायें, आच्छादित तन-तरु पर सुन्दर। पग-पग झरते सुमन-सुरभि से, सुरभित हर्षित जड़-चेतन। छलक रहा तेरा यौवन।।३।। - राजेश मिश्र