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छलक रहा तेरा यौवन

दिव्य अनिंद्य अनूप रूप है, अंग-अंग प्रति उद्दीपन। मधुशाला के मधु-प्याले सा, छलक रहा तेरा यौवन।। दृग-द्वय में मधु मधुर भरा है, मन मेरा लोलुप भँवरा है। मदमाती चितवन पर तेरी  सारा मधुवन तज ठहरा है। युगल जलज-लोचन को अर्पित, इस भँवरे का यह जीवन। छलक रहा तेरा यौवन।।१।। कृष्ण कुन्तलों से आती है, चन्द्रवदन-छवि छन-छन कर यों। श्याम सघन घन-ओट से झाँके शरत्पूर्णिमा-शुभ-सुधांशु ज्यों। भींगें सरस सुधा-वर्षा में, मेरे चकित चकोर-नयन। छलक रहा तेरा यौवन।।२।। कमनीया कंचन काया पर, ज्यों बैठा ऋतुराज सिमटकर। सद्य-स्फुट कोमल कलिकायें, आच्छादित तन-तरु पर सुन्दर। पग-पग झरते सुमन-सुरभि से, सुरभित हर्षित जड़-चेतन। छलक रहा तेरा यौवन।।३।। - राजेश मिश्र 

जब से तुमने दामन छोड़ा

जब से तुमने दामन छोड़ा  प्रिय! हम हँसना भूल गए। मर्यादा पीड़ा की टूटी, और तड़पना भूल गए।। जिन हाथों को हाथ में लेकर  घंटों बैठे रहते थे। मौन मुखर था, बस धड़कन से बातें करते रहते थे। उन सुकुमार स्निग्ध हाथों में  मेहँदी रचना भूल गए।  मर्यादा पीड़ा की टूटी, और तड़पना भूल गए।।१।। जिन नैनों की गहराई में  पल में डूबे जाते थे। जल बिन मीन तड़पते थे तुम जिस दिन देख न पाते थे। आँसू सारे सूख गए हैं, नैन छलकना भूल गए। मर्यादा पीड़ा की टूटी, और तड़पना भूल गए।।२।। नख-शिख सजकर, साँझ-सवेरे तुमसे मिलने आते थे। मेरे मुखमण्डल पर तेरे दृग-मधुव्रत मँडराते थे। जोगन बनकर घूम रहे हैं सजना-सँवरना भूल गए। मर्यादा पीड़ा की टूटी, और तड़पना भूल गए।।३।। - राजेश मिश्र 

वंश-वृक्ष

वंश-वृक्ष तनु-मूल पिता है, माँ शाखा-टहनी-पत्ते। सुन्दर सस्य*-सुमन बच्चे।। जड़ अदृश्य आधार वृक्ष का, भू के अन्दर रहता है। नित-प्रति नये कष्ट सहकर भी  उसको थामे रहता है। तना कठोर खुरदरा दीखे, अन्दर रस लहराता है। जड़ें जुटातीं दाना-पानी, वह ऊपर पहुँचाता है। पिता कभी करता न प्रदर्शित, कितने भी खाये धक्के। सुन्दर सस्य-सुमन बच्चे।।१।। शाखायेॅ-टहनी-पत्ते मिल  शेष व्यवस्था करते हैं। जड़ें जुटायें जो धरती से उसे प्रसंस्कृत करते हैं। सूरज का प्रकाश ले पत्ते उससे भोज्य बनाते हैं। सब अवयव पोषित होते हैं, और सभी हर्षाते हैं। माता गृह, गृहिणी, गृहेश्वरी, सोचे सुख-दुख का सबके। सुन्दर सस्य-सुमन बच्चे।।२।। स्वस्थ, सुभग, पोषित तरु पर पुनि कोमल कलियाँ खिलती हैं। साथ समय के विकसित होतीं, विकसित होकर फलती हैं। फल में बीज पनपते-बढ़ते, बीजों में भवितव्य छुपा। धर्म और संस्कृति का सारा तत्त्व और गन्तव्य छुपा। बच्चों की रखवाली करना, शत्रु मिटाकर या मिट के। सुन्दर सस्य-सुमन बच्चे।।३।। सस्य = फल - राजेश मिश्र 

मेरे जीवनसाथी

तुम मनभावन मनमीत मेरे। तुमसे ही हैं ये गीत मेरे।। जीवन के पतझड़ की बहार। निर्झर नयनों का पुलक प्यार। तेरी साँसों का सुखद स्पर्श, मलयज शीतल सुरभित बयार।। मृदु वचन सुभग संगीत तेरे।। तुमसे ही हैं ये गीत मेरे।। तेरा यौवन, तेरी काया। काले केशों की घन छाया। बाहें तेरी ज्यों कमलनाल, अधरों पर अरुण अरुण छाया।। हर हाव-भाव में प्रीत तेरे।। तुमसे ही हैं ये गीत मेरे।। कर झंकृत मन-वल्लकी तार। धुन छेड़ो जिसमें प्यार-प्यार। हम डूबें, डूबें, जग डूबे, हो प्रेम वृष्टि ऐसी अपार।। कर दो बेसुध हे मीत मेरे।। तुमसे ही हैं ये गीत मेरे।। जीवनधारा, जीवनसंगिनि। जीवन नहिं जीवन तेरे बिन। यूँ ही बरसाती रहना तुम, यह प्रेम-सुधा मुझ पर निशिदिन।। हृदयेशा! मन:प्रणीत मेरे।। तुमसे ही हैं ये गीत मेरे।। वल्लकी = वीणा

परिणय-दिवस सिय-राम का

पावन परम, कलि-मल हरन, जग-जननि का, सुखधाम का, परिणय-दिवस सिय-राम का।। मन मुदित, पुलकित जानकी, मूरति हृदय रख राम की। दुलहन बनी, सज-धज चली , होने सदा श्रीराम की। हरषत चली, सँकुचत चली, करने वरण छविधाम का।। परिणय-दिवस सिय-राम का।।१।। शोभा अमित रघुनाथ की, छवि कोटि हर रतिनाथ की। मन मुग्ध निरखि विदेह का, आँखें सजल सिय मातु की। आनंद-घन, करुणायतन, रघुवर सकल गुण-ग्राम का। परिणय-दिवस सिय-राम का।।२।। रिपुदमन, भरत, लखन लला, श्रुतिकीर्ति, मांडवि, उर्मिला। चारों युगल लखि क्यों नहीं, मिथिला विमोहित हो भला। यह शुभ लगन, मंगलकरन, हो हेतु जग कल्यान का। परिणय-दिवस सिय-राम का।।३।। - राजेश मिश्र 

ओ रे निर्मोही! छोड़ चला किस देश?

ओ रे निर्मोही! छोड़ चला किस देश? पल भर को भी चित्त न लाया,  मुझ विरहिनि का क्लेश। ओ रे निर्मोही!…………।। कंचन काया धूमिल हो गई  चिंता रज छाई है। अंग-अंग प्रिय संग को तरसे,  तड़पे तरुणाई है। सूख-सूख तन शूल हो गया,  रूप-रंग नि:शेष। ओ रे निर्मोही!…………।।१।। निशि दिन नैना झरते रहते, सावन-भादों जैसे। दुख-नदिया अति बढ़ आई है, निकलूँ इससे कैसे? दिवस, मास, संवत्सर बीते, राह तकूँ अनिमेष। ओ रे निर्मोही!…………।।२।। मन मुरझाया, बुद्धि अचेतन, धड़कन डूबी जाये। प्राण हठी यह देह न त्यागे, दुर्दिन दैव दिखाये। सूरज, शशि, उडुगन से भेजूँ, नित नूतन संदेश। ओ रे निर्मोही!…………।।३।। - राजेश मिश्र 

कपटी बुद्ध हुआ जाता है

अन्तस् आच्छादित घन तम से, बाहर शुद्ध हुआ जाता है। कपटी बुद्ध हुआ जाता है।। बोली में सम्मान लिये है, मुखड़े पर मुस्कान लिये है। हँस-हँसकर है गले लगाता, पर कर में किरपान लिये है। उसके आडम्बर पर देखो, जन-जन लुब्ध हुआ जाता है। कपटी बुद्ध हुआ जाता है।।१।। धीरे-धीरे पास पहुँचता मीठी-मीठी बातें करता। जब सम्बन्ध सुदृढ़ हो जाता  अवसर पा पुनि घातें करता। उसकी काली करतूतों पर, यह मन क्रुद्ध हुआ जाता है। कपटी बुद्ध हुआ जाता है।।२।। नये-नये नित स्वाँग रचाता, भोले-भाले लोग लुभाता। पापी, पाखण्डी, व्यभिचारी, स्वप्न-जाल में उन्हें फँसाता। जिसको उसका सच बतलाओ, वही विरुद्ध हुआ जाता है। कपटी बुद्ध हुआ जाता है।।३।। - राजेश मिश्र