ओ रे निर्मोही! छोड़ चला किस देश?
पल भर को भी चित्त न लाया,
मुझ विरहिनि का क्लेश।
ओ रे निर्मोही!…………।।
कंचन काया धूमिल हो गई
चिंता रज छाई है।
अंग-अंग प्रिय संग को तरसे,
तड़पे तरुणाई है।
सूख-सूख तन शूल हो गया,
रूप-रंग नि:शेष।
ओ रे निर्मोही!…………।।१।।
निशि दिन नैना झरते रहते,
सावन-भादों जैसे।
दुख-नदिया अति बढ़ आई है,
निकलूँ इससे कैसे?
दिवस, मास, संवत्सर बीते,
राह तकूँ अनिमेष।
ओ रे निर्मोही!…………।।२।।
मन मुरझाया, बुद्धि अचेतन,
धड़कन डूबी जाये।
प्राण हठी यह देह न त्यागे,
दुर्दिन दैव दिखाये।
सूरज, शशि, उडुगन से भेजूँ,
नित नूतन संदेश।
ओ रे निर्मोही!…………।।३।।
- राजेश मिश्र
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें