मत मार मेरे अल्हड़पन को।
इसमें मेरे प्राण निहित हैं,
ऊर्जित करते तन-मन को।
मत मार मेरे अल्हड़पन को।।
मैं अबोध, जग-बोध नहीं है,
पीड़ा है, पर क्रोध नहीं है।
निश्छल, छल मैं समझ न पाऊँ,
अस्वीकृति, प्रतिरोध नहीं है।
निर्झरि निर्मल जल जैसी में,
सिंचित करती जीवन को।
मत मार मेरे अल्हड़पन को।।१।।
हृदय नवोदित नरम कली है,
सरस, सुगंधित, सद्य खिली है।
मधुर, मदिर, मदमस्त, मनोहर
भावों की सौरभ मचली है।
दिग्दिगंत में मुक्त विचरती,
भरती, हरती जन-मन को।
मत मार मेरे अल्हड़पन को।।२।।
सिंदूरी कमनीया काया,
अंग-अंग मधुमास समाया।
खंजन-से मन-रंजन लोचन,
हँसी, कोई वीणा खनकाया।
गजगामिनि, गज निरखि लजाये,
मोहित करती त्रिभुवन को।
मत मार मेरे अल्हड़पन को।।३।।
- राजेश मिश्र
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