बात-बात पर रटते रहते
वसुधा एव कुटुम्बकम्।
पता नहीं कब टूटेगा भ्रम
वसुधा एव कुटुम्बकम्।।
शत्रु चतुर्दिक घात लगाए
हम आंखें मूंदें बैठे ।
घुन बनकर खोखला कर रहे
सदियों से घर में पैठे।
कायरता का बना आवरण
वसुधा एव कुटुम्बकम्।
पता नहीं कब टूटेगा भ्रम
वसुधा एव कुटुम्बकम्।।
संस्कृति-संस्कृत से पराङ्मुख
अति दयनीय दशा में है।
डगमग डग मग चला जा रहा
धुत निरपेक्ष नशा में है।
शास्त्र न माने, किंतु उचारे
वसुधा एव कुटुम्बकम्।
पता नहीं कब टूटेगा भ्रम
वसुधा एव कुटुम्बकम्।।
पूरी पृथ्वी ही कुटुंब है
पग-पग पर उपदेश करे।
निज कुटुंब में अपनों से ही
नित-प्रति लेकिन द्वेष करे।
भाई दुश्मन, दुश्मन भाई
वसुधा एव कुटुम्बकम्।
पता नहीं कब टूटेगा भ्रम
वसुधा एव कुटुम्बकम्।।
- राजेश मिश्र
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें