बुधवार, 20 अगस्त 2025

मुक्तक

(१)
मेरे भावों की समिधा पर,
तुम चाहे जितना जल डालो।
उसे हविस् कर, राष्ट्र-यज्ञ में,
मैं आहुति देता जाऊँगा।।

हविस् = घृत

(२)

पता है तुमने देखा दरवाजे से जाते मुझको,
हिला था खिड़की का परदा तुम्हारे ओट लेने पर।

(३)

कविगण दया करिए।
कुछ तो नया करिए।।

निशि-दिन इश्क के चर्चे,
और कुछ बयाँ करिए।।

(४)

उसे अति अभिमान था अपने होने का,
वह नहीं है, फिर भी दुनिया चल रही है।

(५)

मेरे पथ पर बीज बोये तुमने कीकर समझकर,
पर मैंने पाया पारिजात के पौथे खिले हुए।

कीकर = बबूल

(६)

ऐसा उलझा हूँ तेरे मधुर मन्दहास के इन्द्रजाल में,
छटपटा रहा हूँ निकलने को, किन्तु गाँठ नहीं मिलती।

७)

लीन थे हम अपनी साधना में,
जगत के प्रपंच से मुँह मोड़कर।
री मेनके! क्यों आई पल भर को
फिर चली गई तड़पता छोड़कर

८)

सुर्ख़ लबों पर तेरे मेरा नाम क्या आया,
हंगामा बरप रहा है महफ़िल में मुसलसल।।

(९)

देखो, बस मुझको मत देखो, 
खुद को भी देखो मुझमें ही। 
इसी देह में मैं भी रहता,
इसी देह में रहती तुम भी।।

(10)

वर्षों बाद छँटे थे बादल चाँद नजर आया था।
अमृतपान कर शुष्क हृदय यह अतिशय हर्षाया था।
किंतु क्षणिक था वह उजियारा घने घनों में खोया,
मैं हतभाग्य, भाग्य में मैंने अँधियारा पाया था।।

(11)

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