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दीये तो रोज जलते हैं, फिर दीपावली क्यों?

दीये तो रोज़ जलते हैं,
फिर दीपावली क्यों?
इस एक दिन के लिए,
इतनी प्रसन्नता/इतनी उतावली क्यों?

हाँ, दीये तो रोज़ जलते हैं,
किन्तु, अकेले
सुदूर, कोने में कहीं
सिमटे हुए
एक-दूसरे से अलग
भयानक अँधेरे में घुटते हुए
पल-पल क्षीण होती रोशनी के साथ
अन्त की ओर अग्रसर
दूसरों को प्रकाशित करने की कोशिश में
स्वयं बुझते हुए
जहाँ नहीं पहुंचता है
एक दीये का प्रकाश दूसरे दीये तक
अकेले जलते हैं, अकेले ही बुझ जाते हैं
बिना अपनी कोई पहचान छोड़े
बिना अपना कोई निशान छोड़े
दफ़न हो जाते हैं अतीत के गर्त में
खो जाते हैं इतिहास के पन्नों में

पर इस एक दिन
जलते हैं सारे दीये साथ-साथ
एक-दूसरे को प्रकाशित करते हुए
एक-दूसरे के प्रकाश से प्रकाशित होते हुए
इस जहाँ को जगमगाते
हर घर/गाँव/समाज/देश से
अँधेरे को भगाते
जलते हैं एक साथ
और जीत जाते हैं
काले घनघोर अँधेरे से

आइये, हम भी साथ खड़े हों, साथ चलें
साथ बढ़ें, साथ लड़ें
मानवता की जंग
विजय हमारी ही होगी
फिर चारों ओर होगा
अमन का उजियारा
चारों तरफ होगी सुख-शांति/
प्रेम और सद्भाव
सारे भेद-भाव भूलकर
मानवता मानवता को गले से लगा लेगी,
वही सच्ची दीवाली होगी!
वही सच्ची दीवाली होगी!!
वही सच्ची दीवाली होगी!!!

टिप्पणियाँ

  1. सुन्दर विचार! प्रत्येक भारतीय को इसी प्रकार दीपावली मनानी चाहिये जिससे अन्धेरा हमेशा के लिये गायब हो जाये!
    बहुत सुन्दर

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