सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

नवल वर्ष का अभिनन्दन हो!

नवल वर्ष का अभिनन्दन हो! नवल चेतना, नवल सृजन हो, मंजुल मंगल परिवर्तन हो, नवल वर्ष की मधुर छाँव में पुलकित प्रमुदित जन-जीवन हो! नवल वर्ष का अभिनन्दन हो! नवल राह हो, नवल चाह हो, नवल सोच हो, नव उछाह हो, नवल भावना, नवल कामना नवल कर्म, नव जागृत मन हो! नवल वर्ष का अभिनन्दन हो! नव गिरि-कानन, गगन नवल हो, नवल पवन हो, चमन नवल हो, मानवता की नवल पौध हो, और नवल जीवन-दर्शन हो! नवल वर्ष का अभिनन्दन हो!

हिंद को बदलने की कसम हमने खाई है

भूख है, गरीबी है, दर्द है, रुसवाई है। वोट से हिंद की जनता की ये कमाई है। देश का पैसा गया स्विस बैंकी खातों में, संसदी नदी में घोटालों की बाढ़ आई है। खाकी हो, खादी हो, बेदाग कोई नहीं, अख़बार और टीवी से तौबा है, दुहाई है। दूध-घी नदारद हैं बच्चों की थाली से, पिज्जा और बर्गर की पूछ है, पहुनाई है। हम तो चुप ना रहेंगे, बोलेंगे, मुँह खोलेंगे, हिंद को बदलने की कसम हमने खाई है।

अब मौका नहीं देंगे

सोचा है शिकायत को अब मौका नहीं देंगे, दुनिया की इनायत को अब मौका नहीं देंगे॥ लायेंगे फूल उपवन से छाँट-छाँटकर, हम भीड़ की रवायत को अब मौका नहीं देंगे॥ पालेंगे ख्वाब पलकों में पुतलियों की तरह टूट जाए नजाकत को अब मौका नहीं देंगे॥ रखेंगे उसको दिल से कलेजे से लगाकर, भाई की अदावत को अब मौका नहीं देंगे॥ लाये हैं वो दवा कि जो जान ले लेगी, परजीवियों की चाहत को अब मौका नहीं देंगे॥ हम हिंद के सपूत मिट जायेंगे शान से, दुश्मनों की कवायद को अब मौका नहीं देंगे॥

सरोज

मैं पुनि समुझि देखि मन माहीं। पिय बियोग सम दुखु जग नाहीं॥ प्राननाथ करुनायतन सुन्दर सुखद सुजान। तुम्ह बिनु रघुकुल कुमुद बिधु सुरपुर नरक समान॥६४॥ श्रीरामचरितमानस का पाठ कर रही सरोज के कानों में अचानक सास की उतावली आवाज सुनाई दी - "अरे बहुरिया, अब जल्दी से ये पूजा-पाठ बंद कर और रसोई की तैयारी कर. दो-तीन घड़ी में ही बिटवा घर पहुँच जाएगा. अब ट्रेन के खाने से पेट तो भरता नहीं है, इसलिए घर पहुँचने के बाद उसे खाने का इंतजार न करना पड़े." सरोज ने पाठ वहीं बंद कर दिया और भगवान को प्रणाम कर उठ गयी. शिवम को दूध देकर रसोई की तैयारी में लग गयी. आज भानू चार सालों के पश्चात् मुंबई से वापस आ रहा था. भानू और सरोज की शादी लगभग छः वर्ष पूर्व हुई थी. दोनों साथ-साथ कॉलेज में पढ़ते थे और अपनी कक्षा के सर्वाधिक मेधावी विद्यार्थियों में से एक थे. पढ़ाई के दौरान ही एक दूसरे के संपर्क में आये और प्यार परवान चढ़ा. घरवालों ने विरोध किया तो भागकर शादी कर ली. इसी मारामारी में पढ़ाई से हाथ धो बैठे और ज़िन्दगी में कुछ बनने, कुछ करने का सपना सपना ही रह गया. इस घटना के समय दोनों स्नातकोत्तर प्रथम वर्ष में

अहमद चाचा

लन्दन के हीथ्रो एअरपोर्ट से जैसे ही विमान ने उड़ान भरी, श्याम का दिल बल्लियों उछलने लगा. बचपन की स्मृतियाँ एक-एक कर मानस पटल पर उभरने लगीं और जैसे-जैसे विमान आसमान की ऊँचाई की ओर बढ़ता गया, वह आस-पास के वातावरण से बेसुध अतीत में मग्न होता चला गया. माँ की ममता, पिताजी का प्यार, मित्रों के साथ मिलकर धमाचौकड़ी करना, गाँव के खेल, नदी का रेता, हरे-भरे खेत, अनाजों से भरे खलिहान और वहां कार्यरत लोगों की अथक उमंग, तीज त्यौहार की चहल-पहल आदि ह्रदय को रससिक्त करते गए. गाँव के खेलों की बात ही कुछ और है. चिकई, कबड्डी, कूद, कुश्ती, गिल्ली-डंडा, लुका-छिपी, ओल्हा-पाती, कनईल के बीज से गोटी खेलना, कपड़े से बनी हुई गेंद से एक-दूसरे को दौड़ा कर मारना आदि-आदि. मनोरंजन से भरपूर ये स्वास्थ्यप्रद खेल शारीरिक और मानसिक उन्नति तो प्रदान करते ही हैं, इनमें एक पैसे का खर्च भी नहीं होता है. अतः धर्म, जाति, सामाजिक-आर्थिक अवस्था से निरपेक्ष सबके बच्चे सामान रूप से इन्हें खेल सकते हैं. इन सबसे अलग एक सबसे प्यारी चीज़ थी जिसके लिए वह वर्षों व्याकुल रहा, वह थे अहमद चाचा. हिन्दुओं के इस गाँव में एक अहमद चाचा का ही प

किसान

धरती पर भगवान्‌ विष्नु का रूप हमारा पालक-पोषक, अन्न्दाता है किसान इन्सान की प्रथम आवश्यकता का पूरक जीवनदाता है किसान मुँह-अँधेरे खेतों में पहुँच अपने पवित्र श्रम-बिन्दु से सूरज की पहली किरणों का अभिषेक करता है किसान और साँझ को दिन भर की थकी-माँदी सूरज की अन्तिम किरणों को अँधेरे की गोद में सुलाकर घर के लिये प्रस्थान करता है किसान धरती का सीना चीरकर फसलों को लहलहाता है अन्न उपजाता है किसान भूख और गरीबी से लड़ता है पर चींटी से लेकर भगवान्‌ तक सबका पेट पालता है किसान हरित-क्रान्ति के नारे को सफल बनाने वाला भारत का भाग्यविधाता है किसान फिर भी अपने ही देश में देश का सबसे बड़ा अभागा है किसान!

हँसी तुम्हारी एक दिन इलज़ाम हो जायेगी

चलते-चलते ज़िंदगी की शाम हो जायेगी। उम्र सारी यूँ ही तमाम हो जायेगी॥ बात करता है इस जमाने में मूल्यों की, आबरू इसकी एक दिन नीलाम हो जायेगी॥ भूख कि आदमी आदमी को खायेगा, इंसानों का जंगल, इंसानियत गुमनाम हो जायेगी॥ टूटे हुए दिल, स्तब्ध-बिखरे लोग, डाकुओं की मंजिल आसान हो जायेगी॥ देखकर सबको प्रेम से मुस्कुरा देते हो जो, हँसी तुम्हारी एक दिन इलज़ाम हो जायेगी॥

दीये तो रोज जलते हैं, फिर दीपावली क्यों?

दीये तो रोज़ जलते हैं, फिर दीपावली क्यों? इस एक दिन के लिए, इतनी प्रसन्नता/इतनी उतावली क्यों? हाँ, दीये तो रोज़ जलते हैं, किन्तु, अकेले सुदूर, कोने में कहीं सिमटे हुए एक-दूसरे से अलग भयानक अँधेरे में घुटते हुए पल-पल क्षीण होती रोशनी के साथ अन्त की ओर अग्रसर दूसरों को प्रकाशित करने की कोशिश में स्वयं बुझते हुए जहाँ नहीं पहुंचता है एक दीये का प्रकाश दूसरे दीये तक अकेले जलते हैं, अकेले ही बुझ जाते हैं बिना अपनी कोई पहचान छोड़े बिना अपना कोई निशान छोड़े दफ़न हो जाते हैं अतीत के गर्त में खो जाते हैं इतिहास के पन्नों में पर इस एक दिन जलते हैं सारे दीये साथ-साथ एक-दूसरे को प्रकाशित करते हुए एक-दूसरे के प्रकाश से प्रकाशित होते हुए इस जहाँ को जगमगाते हर घर/गाँव/समाज/देश से अँधेरे को भगाते जलते हैं एक साथ और जीत जाते हैं काले घनघोर अँधेरे से आइये, हम भी साथ खड़े हों, साथ चलें साथ बढ़ें, साथ लड़ें मानवता की जंग विजय हमारी ही होगी फिर चारों ओर होगा अमन का उजियारा चारों तरफ होगी सुख-शांति/ प्रेम और सद्भाव सारे भेद-भाव भूलकर मानवता मानवता को गले से लगा लेगी, वह

जड़ और चेतन

श्रांत/क्लांत/निश्चल दरवाजे के चौखट पर बैठीं अम्मा! निर्निमेष भाव से एकटक देखे जा रही थीं कड़क/तपती/खड़ी दुपहरी में तपते किन्तु, छाया प्रदान करते टिकोरों से लदे हुए अमोले को। निश्चय किया था उन्होंने और पिताजी ने रोपेंगे एक वृक्ष अपने पुत्र के जन्म के मौके पर; और रोपा था इस अमोले को अपने एकमात्र पुत्र के जन्म के समय। इस तरह जन्म दिया था दो पुत्रों को एक जड़; एक चेतन! दोनों बढ़े विकसित हुए स्वावलम्बी हुए। जड़ अभी भी वहीं खड़ा है चुपचाप तपती/चिलमिलाती धूप में शीतल छाया प्रदान करता; अम्मा-पिताजी के परिश्रम का/ प्रेम और वात्सल्य का/ त्याग का प्रतिफल प्रदान करता। और चेतन...? खो गया है कहीं दुनिया की भीड़ में उन्नति के शिखर की ओर अग्रसर आधुनिकता का हाथ थामे हुए पुरातन सोच/ पुरातन परम्पराओं से पीछा छुड़ाकर, विवश बुढ़ापे को अकेलापन/घुटन देकर खो गया है कहीं हमारा चेतन!

गुलों की आरजू की थी मिले काँटे नसीब से

गुलों की आरजू की थी मिले काँटे नसीब से। चली जब इश्क की हवा गुज़र गयी करीब से॥ रफीकों की तरफ हम आस लिए देखते रहे, दो बूँद प्यासे को मिली अपने रकीब से॥ अब क्या सुनाएँ दास्तान-ए-आशिकी अपनी, वो वाकये थे ज़िंदगी के कुछ अजीब से॥ हम तो गए थे दर पे तेरे मौत माँगने, वह कौन था जिसने बचा लिया सलीब से॥ है दौलत-ए-मोहब्बत अब हासिल अमीरों का, क्यों कर नज़र मिलेगी कोई एक ग़रीब से॥ नाकाबिल-ए-ज़िंदगी को ज़िंदगी मिली, एक बदनसीब मिल गया एक बदनसीब से॥

हम भारतीयों के भी बड़े ठाट होते हैं

हम भारतीयों के भी बड़े ठाट होते हैं, बारह चार की गाड़ी को पहुँचने में बारह आठ होते हैं। समय से कहीं भी हम नहीं पहुँचते, देर से पहुँचना/प्रतीक्षा करवाना/दूसरों का समय नष्ट करना बड़प्पन की निशानी समझते॥ अपना लिया है हमने पाश्चात्य गीत/संगीत/नृत्य/ भाषा-बोली/खान-पान/रहन-सहन, किन्तु, नहीं अपना सके उनकी नियमितता/राष्ट्रीयता/अनुशासन। करते हैं आधुनिकता का पाखण्ड, भरते हैं उच्च सामाजिकता का दम्भ; कहते हैं हमारी सोच नई है, किन्तु, मानवता मर गई है! भूलते जा रहे हैं अपनी उत्कृष्ट सभ्यता/संस्कृति/संस्कार/स्वाभिमान/ माता-पिता-गुरु का मान-सम्मान/ गाँव/समाज/खेत/खलिहान/ देशप्रेम/राष्ट्रसम्मान! अंतर्राष्ट्रीय मंच पर अपनी बात कहने का साहस नहीं कर पाते हैं, गली-नुक्कड़ पर भाषणबाजी करते जाति-धर्म के नाम पर लोगों को भड़काते/आग लगाते हैं। नहीं समझते हैं कि कश्मीर/लेह/लद्दाख दे देने में नहीं है कोई बड़ाई, यह कोई त्याग नहीं है यह तो है कदराई। अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है समय है, सँभल जाओ; अरे वो सुबह के भूले बुद्धू शाम को तो घर आओ!

मैं नारी हूँ !

मैं नारी हूँ ! विधाता की अनुपम सृष्टि/ ममतामयी दृष्टि/ भावनाओं की वृष्टि। मैं जीवनदायिनी पालक/पोषक हूँ, सारे दुखों की अवशोषक हूँ । प्रेम की परिभाषा हूँ, ज्ञानियों की जिज्ञासा हूँ, थकित मन की आशा हूँ, कामुक तन की अभिलाषा हूँ । साक्षात दुर्गा हूँ काली/लक्ष्मी/पार्वती वीणावादिनी हूँ मैं, मोहिनी/रम्भा/मेनका कामायिनी हूँ मैं । भक्तों की भक्ति हूँ मैं, प्रकृति की सृजन-शक्ति हूँ मैं । मैं नारी हूँ !

तड़प

तेरी यादों के गुलशन से कुछ फूल छाँटता हूँ। ना पूछ बिन तेरे शब मैं कैसे काटता हूँ॥ मुद्दत गुजर गई नज़र तुमसे मिले हुए, आये नज़र कहीं तू हर सिम्त ताकता हूँ॥ वैसे तो तेरे जाने का ग़म बहुत बड़ा है, तू खुश रहे यही मैं सज़दे में माँगता हूँ॥ मिल जाये ग़र तू फिर से जाने ना दूँ मैं तुझको, सारे जहाँ की खुशियाँ मैं तुझपे वारता हूँ॥ शायद मिल सकें ना इस जन्म में दोबारा, फिर भी मैं तेरी ख़ातिर हर रात जागता हूँ॥

रोशनी हर सिम्त नज़र आयेगी

चलो दर्द-ए-दिल को बढ़ाते जाएँ। हदों की हर लकीरों को मिटाते जाएँ॥ ग़म-ए-फ़ुरकत में हमराह की जरूरत होगी, याद-ए-माज़ी के चरागों को जलाते जाएँ॥ तनहा-तनहा हैं दिन-रात और शाम-ओ-सहर, कोई तरकीब कर इनको मिलाते जाएँ॥ दूरियाँ दिलों की खुद-ब-खुद पट जायेंगी, सफर में हर शख्स को गले से लगाते जाएँ॥ रोशनी हर सिम्त नज़र आएगी मोहसिन मेरे, चराग़-ए-तालीम हर दर पर जलाते जाएँ॥

गाँधीजी को एक संक्षिप्त रिपोर्ट

गाँधी तेरे देश का, हो गया बंटाधार। जित देखो तित व्याप्त है, झूठ और भ्रष्ट्राचार॥ झूठ और भ्रष्ट्राचार, द्वेष, हिंसा, बेईमानी, शहर-गाँव की बाबा तेरे यही कहानी॥ खूनी हो गई खाकी, चोर हो गई खादी, बंटाधार हो गया तेरे देश का गाँधी॥

मुमकिन है

आज गिरी है बिजली तेरे दामन में। मुमकिन है कल खुशियाँ आयें आँगन में॥ दर्द जगाया है जिसने तेरे मन में, मुमकिन है साथी बन जाये जीवन में॥ आज खिला है एक फूल गर गुलशन में, मुमकिन है कल फूल ही फूल हों उपवन में॥ दुबक गई है मानवता यदि कानन में, मुमकिन है कल फिर पनपे मानवजन में॥ भ्रष्टाचार से क्षोभ उठा तेरे मन में, मुमकिन है कल शोर मचे यह जन-जन में॥ व्याप्त तुझे जो आज दिखा तेरे तन-मन में, मुमकिन है कल तू देखे उसे कण-कण में॥

माँ का आँचल फिर पनाह हो गया

कल मुझसे गुनाह हो गया। मेरा दुश्मन तबाह हो गया॥ कौन निर्धारित करेगा सरहदें, वह तो अब तानाशाह हो गया॥ देखा करते थे जिसे ख्वाब में, कल सुना उसका निकाह हो गया॥ दोस्त जो दिल के मेरे करीब था, आज वह सागर अथाह हो गया॥ जब लगीं दुनिया की उसको ठोकरें, माँ का आँचल फिर पनाह हो गया॥

मुर्गा और मैं

रमुआ के मुर्गे की बाँग सुनकर रोज़ की तरह मेरी नींद खुल गयी. वह एकदम नियम से सुबह के ठीक साढ़े पाँच बजे बाँग देता था. मैंने घड़ी में पौने छः का अलार्म सेट कर रखा था और पन्द्रह मिनट तक बिस्तर में पड़े रहने के पश्चात अलार्म की आवाज के साथ ही बिस्तर छोड़ता था. यह सिलसिला कई महीनों से निर्बाध रूप से चला आ रहा था. किन्तु आज मुर्गे को बाँग दिए लगभग आधे घंटे हो गए, अलार्म नहीं बजा. मेरा माथा ठनका. उठकर घड़ी में समय देखा, तो अभी सुबह के साढ़े तीन बज रहे थे. क्रोध से शरीर काँपने लगा. मुर्गे की एक लापरवाही ने पूरी नींद खराब कर दी. जैसे-तैसे सुबह हुई. तैयार होकर ऑफिस पहुँचा, तो पता चला कि मेरी सहायिका ने अचानक छुट्टी ले ली थी. पूरा मूड चौपट हो गया. ऑफिस का जो भी काम था, किसी तरह जल्दी-जल्दी निपटाकर लंच के एक घंटे पश्चात ही घर के लिए रवाना हो गया. संयोग से बगीचे में ही मुर्गे से मुलाक़ात हो गयी, जो मस्ती में गाना गाते हुए चहलकदमी कर रहा था. उसे देखते ही सारा क्रोध आँखों में उतर आया. किसी तरह अपने-आपको संयमित करते हुए पहुँच गया उसके सामने. वह देखते ही मुस्कराकर बोला - "भैया प्रणाम!

जय माँ अम्बे!

मेरे मन के अंध तमस में ज्योतिर्मय उतरो || जय जय माँ अम्बे ! जय जय माँ दुर्गे ! नहीं कहीं कुछ मुझमें सुंदर, काजल सा काला सब अन्दर | प्राणों के गहरे गह्वर में करुनामय उतरो || जय जय माँ अम्बे ! जय जय माँ दुर्गे ! नहिं जप-योग, न यज्ञ प्रबीना, ज्ञानशून्य मैं सब विधि हीना | ज्ञानचक्षु जागृत कर अम्बे जगमग जग कर दो || जय जय माँ अम्बे ! जय जय माँ दुर्गे ! जीवन की तुम एक सहारा, शक्ति स्वरूपा जगदाधारा | नवजीवन नवज्योति भरो माँ पापमुक्त कर दो || जय जय माँ अम्बे ! जय जय माँ दुर्गे !

टीस

तिल-तिल जलते रहते हैं आँसू ढलते रहते हैं स्मृतियों के चित्र-पटल पर दृश्य बदलते रहते हैं गुल्ली-डंडा, चिकई, कबड्डी नानी-दादी की लोरी भाग के घर से खेलने जाना बाबा से चोरी-चोरी माँ-बाबू की प्यार सनी झिड़की को मचलते रहते हैं स्मृतियों के चित्र-पटल पर दृश्य बदलते रहते हैं दादुर की टर्र-टर्र और झींगुर की झन-झन चातक-पपीहा-कोयल-मोर बोलें तो झूमे तन-मन सर्दी-गर्मी-वर्षा ऋतु के चक्र बदलते रहते हैं स्मृतियों के चित्र-पटल पर दृश्य बदलते रहते हैं यादें मन को मथती हैं गाँव की राहें तकती हैं उजड़ी बगियाँ, सूनी गलियाँ आन मिलो अब कहती हैं कजरी-फगुआ, दंगल-मेले पल-पल सालते रहते हैं स्मृतियों के चित्र-पटल पर दृश्य बदलते रहते हैं

मैं रचनाकार नहीं हूँ!

मैं नहीं हूँ रचनाकार! चुरा लेता हूँ दो शब्द यहाँ से दो शब्द वहाँ से रूपक यहाँ से छंद वहाँ से पिरोता हूँ अपने भावों के धागे में प्रस्तुत करता हूँ साभार मैं नहीं हूँ रचनाकार! न उपाधि, न सृजनशीलता शब्द सरल हैं, नहीं जटिलता न विषय चयन की क्षमता न साहित्यिक दुर्गमता है थोड़ी सी संवेदनशीलता फलतः हो जाता उद्विग्न व्यक्त करता हूँ हृदयोद्गार मैं नहीं हूँ रचनाकार! कटाक्ष करते हैं लोग धिक्कारते हैं मुझे मन भी धिक्कारता है मेरा समझाता हूँ उसे - नीयत बुरी नहीं है अपने भाव व्यक्त करना चाहता हूँ लोगों के समक्ष अपने विचार प्रकट करना चाहता हूँ पर नहीं करता स्वीकार कोसता है बारम्बार मैं नहीं हूँ रचनाकार! मैं नहीं हूँ रचनाकार!!! (सादर समर्पित उन स्नेही स्वजनों को, जिनकी आलोचना का केंद्र-बिंदु हम जैसे सामान्य जन होते हैं जो सीखने की कोशिश में लिखने की कोशिश करने से बाज नहीं आते...)

प्यासा हूँ मैं!

हाँ प्यासा हूँ मैं! भटक रहा हूँ तलाश में एक बूँद पानी की... आँखों में आस लिए होंठों पर प्यास लिए सागर की गर्त में सहरा के गर्द में नदिया के करारों पर बर्फ के पहाड़ों पर सूखे मैदानों में पथरीली चट्टानों में भटक रहा हूँ मैं तलाश में प्रेम के दो बोल की... ह्रदय में प्यार लिए सपनों का संसार लिए शहरों में, गावों में उफनती भावनावों में दुनिया की भीड़ में जंगल के बीहड़ में अपनों में, परायों में अनजाने सायों में भटक रहा हूँ मैं तलाश में तेरी... आस्था का दीप लिए श्रद्धा और प्रीत लिए अन्तस्थ शिराओं में पहाड़ों की गुफाओं में ग्रंथों के सिद्धांत में अखिल ब्रह्माण्ड में जड़ में, चेतन में विनाश में, सृजन में भटक रहा हूँ मैं, क्योंकि प्यासा हूँ मैं!

अनुरोध

दिलजोई का कुछ तो अब सामान कर दोस्त और दुश्मन की तू पहचान कर. मिट जाएँ दुनिया से सारी नफरतें अब तो कुछ ऐसा ही इंतजाम कर. दूरियां बढ़ती रही हैं आज तक खाइयाँ पट जाएँ ऐसा काम कर. जो मिटा दे दर्द हर एक कौम का लागू कोई ऐसा संविधान कर. राम और रहीम में है फर्क क्या नासमझ न इनको तू बदनाम कर. दे अमन की रोशनी सारे जहाँ को कर सके तो ऐसा ही कुछ काम कर.

माँ हूँ मैं!

माँ हूँ मैं! पल रही हूँ कोख में एक माँ की लेकिन डरी-सहमी सी- क्या मैं जन्म ले पाऊँगी? ये दुनिया देख पाऊंगी? कहीं गर्भ में ही मार तो नहीं दी जाऊंगी? माँ हूँ मैं! उमंगो से भरी कुलाचें भर रही हूँ मैं माँ के प्यार तले, पापा के दुलार तले लेकिन कांप उठती हूँ सोचकर क्या मैं ससुराल जा पाऊँगी? क्या मैं माँ बन पाऊंगी? कहीं जला तो नहीं दी जाऊंगी दहेज़ के लिए? माँ हूँ मैं! बेटी की शादी हो गई है सुंदर सी बहू है मेरी, कभी-कभी मिल पाती हूँ वृद्धाश्रम में रह रही हूँ न बेटे का घर थोड़ा छोटा है! माँ हूँ मैं! चिंता लगी रहती है हमेशा अपने बच्चों की घुलती रहती हूँ उनकी याद में भगवान् उन्हें सुखी रखें! सदा सुखी रखें!!

मुझको भी पढ़ना है

लाओ, मेरा बस्ता दे दो, मुझको भी अब पढ़ना है. सीढियाँ सफलता की, जीवन में अब चढ़ना है. भूखे रहकर बहुत मैं सोया, पेट मुझे भी भरना है. फटे-पुराने छोड़ चीथड़े, कपड़े नए पहनना है. बोझ तले मैं तड़प रहा था, अम्बर में अब उड़ना है. पुरुषार्थ-चतुष्टय प्राप्ति के पथ पर, मुझको आगे बढ़ना है.

गंगा बचाओ अभियान

विश्व की तमाम सभ्यताओं और संस्कृतियों का प्रादुर्भाव एवं विकास किसी न किसी नदी के तट पर हुआ है. नदियाँ हमेशा से ही किसी भी राष्ट्र की अर्थव्यवस्था का आधार स्तम्भ रही हैं. अतः मानव-समाज सदा ही इनका ऋणी रहा है एवं जन्मदायिनी माता की भाँति इनका सम्मान करता आया है. भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के पल्लवित एवं पुष्पित होने में जिन नदियों ने अपना अमूल्य योगदान दिया है, गंगा का स्थान उनमें सर्वोपरि है. गंगा एक पौराणिक नदी है एवं प्राचीन काल से ही हमारी आर्थिक एवं धार्मिक गतिविधियों का केंद्र-बिंदु रही है. यह गंगोत्री से उद्भूत होकर देश के एक बड़े भू-भाग को अपने अमृतमय मीठे जल से सिंचित करते हुए गंगासागर में जाकर समुद्र के आगोश में समाहित हो जाती है. गंगा का तटीय क्षेत्र भारतभूमि के सर्वाधिक उपजाऊ क्षेत्रों में से एक है. काशी, प्रयाग, हरिद्वार, कानपुर, कन्नौज, पाटलिपुत्र आदि पौराणिक एवं ऐतिहासिक नगरों का उद्भव एवं विकास इसी के पवित्र एवं समृद्ध तट पर हुआ है. किन्तु मानव-सभ्यता के विकास में अत्यंत नजदीकी भूमिका निभाने वाली इन नदियों को इसका भयंकर दुष्परिणाम भी भुगतना पड़ा है. अ

तोड़कर ले आऊँगा मैं तारा एक दिन

मेरे नसीब ने मुझे पुकारा एक दिन रोशनी का मिल गया इशारा एक दिन अभी तो खिज़ां का पहरा है चमन पर होगा बहारों का नज़ारा एक दिन कब तलक भटकेंगे सागर की गर्त में हमको मिल ही जाएगा किनारा एक दिन आज तो धरती पर पाँव रक्खा है आसमां हो जाएगा हमारा एक दिन अभी तो इन जुगनुओं को पास में रखिए तोड़कर ले आऊँगा मैं तारा एक दिन

उत्सव

कल १५ अगस्त है - हमारा स्वाधीनता दिवस. भारतवर्ष के दो प्रमुख राष्ट्रीय त्यौहारों में से एक. हम सभी भारतवासियों के लिए एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण दिन. हम स्वतंत्र देश के स्वतंत्र नागरिक हैं - यह याद करके खुश होने, इतराने का दिन... सारी दुनिया में अपनी स्वतंत्रता का डंका बजने का दिन... स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों की शहादतों को याद करने का दिन... तिरंगे झंडे को फहराने का और राष्ट्रगीत गाने का दिन... राष्ट्रप्रेम से ओत-प्रोत भाषण देने, सुनने और राष्ट्रीयता के भावों से लबरेज गानों को बजाने और सुनाने का दिन... सरकार की उपलब्धियाँ (जिसमें से कुछ पिछले सालों से उधार ली जाती हैं, कुछ आने वाले सालों के लिए तैयार की जाती हैं) गिनाने का दिन... बड़े-बड़े वादे करने का दिन...इत्यादि...इत्यादि... इतना बड़ा दिन! इतना बड़ा त्यौहार!! इतने सारे क्रिया-कलाप!!! ज़ाहिर है उत्सव भी बड़ा होगा. होगा क्या, होता ही है. स्वाधीनता दिवस और गणतंत्र दिवस ही तो सबसे बड़े राष्ट्रोत्सव हैं. इस दिन की चहल-पहल, लोगों का उत्साह आदि अपने चरम पर होते हैं. वैसे सब लोगों के उत्साह के अपने-अपने कारण होते हैं. इसील