सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

प्यासा हूँ मैं!

हाँ प्यासा हूँ मैं!

भटक रहा हूँ तलाश में एक बूँद पानी की...
आँखों में आस लिए
होंठों पर प्यास लिए
सागर की गर्त में
सहरा के गर्द में
नदिया के करारों पर
बर्फ के पहाड़ों पर
सूखे मैदानों में
पथरीली चट्टानों में

भटक रहा हूँ मैं तलाश में प्रेम के दो बोल की...
ह्रदय में प्यार लिए
सपनों का संसार लिए
शहरों में, गावों में
उफनती भावनावों में
दुनिया की भीड़ में
जंगल के बीहड़ में
अपनों में, परायों में
अनजाने सायों में

भटक रहा हूँ मैं तलाश में तेरी...
आस्था का दीप लिए
श्रद्धा और प्रीत लिए
अन्तस्थ शिराओं में
पहाड़ों की गुफाओं में
ग्रंथों के सिद्धांत में
अखिल ब्रह्माण्ड में
जड़ में, चेतन में
विनाश में, सृजन में

भटक रहा हूँ मैं,
क्योंकि प्यासा हूँ मैं!

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

अहमद चाचा

लन्दन के हीथ्रो एअरपोर्ट से जैसे ही विमान ने उड़ान भरी, श्याम का दिल बल्लियों उछलने लगा. बचपन की स्मृतियाँ एक-एक कर मानस पटल पर उभरने लगीं और जैसे-जैसे विमान आसमान की ऊँचाई की ओर बढ़ता गया, वह आस-पास के वातावरण से बेसुध अतीत में मग्न होता चला गया. माँ की ममता, पिताजी का प्यार, मित्रों के साथ मिलकर धमाचौकड़ी करना, गाँव के खेल, नदी का रेता, हरे-भरे खेत, अनाजों से भरे खलिहान और वहां कार्यरत लोगों की अथक उमंग, तीज त्यौहार की चहल-पहल आदि ह्रदय को रससिक्त करते गए. गाँव के खेलों की बात ही कुछ और है. चिकई, कबड्डी, कूद, कुश्ती, गिल्ली-डंडा, लुका-छिपी, ओल्हा-पाती, कनईल के बीज से गोटी खेलना, कपड़े से बनी हुई गेंद से एक-दूसरे को दौड़ा कर मारना आदि-आदि. मनोरंजन से भरपूर ये स्वास्थ्यप्रद खेल शारीरिक और मानसिक उन्नति तो प्रदान करते ही हैं, इनमें एक पैसे का खर्च भी नहीं होता है. अतः धर्म, जाति, सामाजिक-आर्थिक अवस्था से निरपेक्ष सबके बच्चे सामान रूप से इन्हें खेल सकते हैं. इन सबसे अलग एक सबसे प्यारी चीज़ थी जिसके लिए वह वर्षों व्याकुल रहा, वह थे अहमद चाचा. हिन्दुओं के इस गाँव में एक अहमद चाचा का ही प

हम भारतीयों के भी बड़े ठाट होते हैं

हम भारतीयों के भी बड़े ठाट होते हैं, बारह चार की गाड़ी को पहुँचने में बारह आठ होते हैं। समय से कहीं भी हम नहीं पहुँचते, देर से पहुँचना/प्रतीक्षा करवाना/दूसरों का समय नष्ट करना बड़प्पन की निशानी समझते॥ अपना लिया है हमने पाश्चात्य गीत/संगीत/नृत्य/ भाषा-बोली/खान-पान/रहन-सहन, किन्तु, नहीं अपना सके उनकी नियमितता/राष्ट्रीयता/अनुशासन। करते हैं आधुनिकता का पाखण्ड, भरते हैं उच्च सामाजिकता का दम्भ; कहते हैं हमारी सोच नई है, किन्तु, मानवता मर गई है! भूलते जा रहे हैं अपनी उत्कृष्ट सभ्यता/संस्कृति/संस्कार/स्वाभिमान/ माता-पिता-गुरु का मान-सम्मान/ गाँव/समाज/खेत/खलिहान/ देशप्रेम/राष्ट्रसम्मान! अंतर्राष्ट्रीय मंच पर अपनी बात कहने का साहस नहीं कर पाते हैं, गली-नुक्कड़ पर भाषणबाजी करते जाति-धर्म के नाम पर लोगों को भड़काते/आग लगाते हैं। नहीं समझते हैं कि कश्मीर/लेह/लद्दाख दे देने में नहीं है कोई बड़ाई, यह कोई त्याग नहीं है यह तो है कदराई। अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है समय है, सँभल जाओ; अरे वो सुबह के भूले बुद्धू शाम को तो घर आओ!

जिंदगी मैं तेरे तराने लिख रहा हूँ

बीते पलों के अफ़साने लिख रहा हूँ। जिंदगी मैं तेरे तराने लिख रहा हूँ॥ हालत कुछ यूँ कि वक्त काटे नहीं कटता, वक्त काटने के बहाने लिख रहा हूँ॥ नदिया किनारे, पेड़ों की छाँव में, देखे थे जो सपने सुहाने लिख रहा हूँ॥ हँसते-खेलते, अठखेलियाँ करते, खूबसूरत गुज़रे ज़माने लिख रहा हूँ॥ धुंधली ना पड़ जाएँ यादें हमारी, नयी कलम से गीत पुराने लिख रहा हूँ॥ जिसके गवाह थे वो झुरमुट, वो झाड़ियाँ, तेरे-मेरे प्यार की दास्तानें लिख रहा हूँ॥