हम भारतीयों के भी
बड़े ठाट होते हैं,
बारह चार की गाड़ी को पहुँचने में
बारह आठ होते हैं।
समय से कहीं भी
हम नहीं पहुँचते,
देर से पहुँचना/प्रतीक्षा करवाना/दूसरों का समय नष्ट करना
बड़प्पन की निशानी समझते॥
अपना लिया है हमने
पाश्चात्य गीत/संगीत/नृत्य/
भाषा-बोली/खान-पान/रहन-सहन,
किन्तु, नहीं अपना सके
उनकी नियमितता/राष्ट्रीयता/अनुशासन।
करते हैं आधुनिकता का पाखण्ड,
भरते हैं उच्च सामाजिकता का दम्भ;
कहते हैं हमारी सोच नई है,
किन्तु, मानवता मर गई है!
भूलते जा रहे हैं
अपनी उत्कृष्ट
सभ्यता/संस्कृति/संस्कार/स्वाभिमान/
माता-पिता-गुरु का
मान-सम्मान/
गाँव/समाज/खेत/खलिहान/
देशप्रेम/राष्ट्रसम्मान!
अंतर्राष्ट्रीय मंच पर
अपनी बात कहने का
साहस नहीं कर पाते हैं,
गली-नुक्कड़ पर भाषणबाजी करते
जाति-धर्म के नाम पर
लोगों को भड़काते/आग लगाते हैं।
नहीं समझते हैं कि
कश्मीर/लेह/लद्दाख दे देने में
नहीं है कोई बड़ाई,
यह कोई त्याग नहीं है
यह तो है कदराई।
अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है
समय है, सँभल जाओ;
अरे वो सुबह के भूले बुद्धू
शाम को तो घर आओ!
बड़े ठाट होते हैं,
बारह चार की गाड़ी को पहुँचने में
बारह आठ होते हैं।
समय से कहीं भी
हम नहीं पहुँचते,
देर से पहुँचना/प्रतीक्षा करवाना/दूसरों का समय नष्ट करना
बड़प्पन की निशानी समझते॥
अपना लिया है हमने
पाश्चात्य गीत/संगीत/नृत्य/
भाषा-बोली/खान-पान/रहन-सहन,
किन्तु, नहीं अपना सके
उनकी नियमितता/राष्ट्रीयता/अनुशासन।
करते हैं आधुनिकता का पाखण्ड,
भरते हैं उच्च सामाजिकता का दम्भ;
कहते हैं हमारी सोच नई है,
किन्तु, मानवता मर गई है!
भूलते जा रहे हैं
अपनी उत्कृष्ट
सभ्यता/संस्कृति/संस्कार/स्वाभिमान/
माता-पिता-गुरु का
मान-सम्मान/
गाँव/समाज/खेत/खलिहान/
देशप्रेम/राष्ट्रसम्मान!
अंतर्राष्ट्रीय मंच पर
अपनी बात कहने का
साहस नहीं कर पाते हैं,
गली-नुक्कड़ पर भाषणबाजी करते
जाति-धर्म के नाम पर
लोगों को भड़काते/आग लगाते हैं।
नहीं समझते हैं कि
कश्मीर/लेह/लद्दाख दे देने में
नहीं है कोई बड़ाई,
यह कोई त्याग नहीं है
यह तो है कदराई।
अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है
समय है, सँभल जाओ;
अरे वो सुबह के भूले बुद्धू
शाम को तो घर आओ!
हम भारतियों ने पाश्चात्य रंग -ढंग, गीत,संगीत, पहनावा, जीवनचर्या, शराब, और पता नहीं क्या क्या अपनाया. ये सब तो शौक से .
जवाब देंहटाएंकुछ मजबूरी में भी हैं:
हथियार, विमान, कंप्यूटर, तकनीक. और भी बहुत कुछ.
लेकिन हमें विदेशों (खासकर उनकी जिनकी हम नक़ल करने की कोशिश करते हैं.) से बहुत कुछ और सीखना है. सीखो वह जिससे की देश के विकास में कुछ योगदान दे सको. पिज्जा बर्गर खाने से तो ये होने से रहा भैया, सूट पहनकर रौब तो बढ़ जाता है बाबु साहब का लेकिन गर्मी में??? अरे आजतक हमने बस ऐसे ही झूठी नक़ल की है. नकलची मत बनो. उनसे सीखो नहीं तो भाई भारत आज तक कोई भी अविष्कार नहीं कर पाया है (विज्ञानं में.). और हाँ कुछ चीजो में तरक्की तो हुई है और इस मामले में हम विदेशों की नक़ल नहीं करते , जनसँख्या!!!!!!!!!, भ्रष्टाचार, घूसखोरी, कालाबाजारी कई हैं हमारे मौलिक खोज कितना गिनाऊँ.
और अंत में हमारी मौलिक संस्कृति का , उस संस्कृति का जिसका अस्तित्व वर्तमान की सभी संस्क्रित्यों से श्रेष्ठ है हम नक़ल कर कर कर उसे संक्रमित कर रहे हैं एड्स , बर्ड फ़्लू की तरह. अरे भाई जब देश की संस्कृति को बचने/बनाने में तुम्हारा कोई योगदान नहीं है तो इसे नष्ट करने पर क्यों तुले हो. उनसे सीखो नक़ल मत करो.
सुदर रचना .. व्यंग में तीखापन कम रहा
जवाब देंहटाएंसत्य वचन ! ये नकल की प्रवृति हमे डुबा रही है, और हम भी सांस खीचे दम साधे बैठे है! बहुत सुन्दर रचना, साधुवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना,शाम को तो घर आओ......!
जवाब देंहटाएंसर्वश्री शशि जी, दिनेश जी, अवध जी एवं डब्बू जी, प्रोत्साहन के लिए आप सभी का कोटिशः धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंHakeekat bata rahi hai apki kavita
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