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मुर्गा और मैं

रमुआ के मुर्गे की बाँग सुनकर रोज़ की तरह मेरी नींद खुल गयी. वह एकदम नियम से सुबह के ठीक साढ़े पाँच बजे बाँग देता था. मैंने घड़ी में पौने छः का अलार्म सेट कर रखा था और पन्द्रह मिनट तक बिस्तर में पड़े रहने के पश्चात अलार्म की आवाज के साथ ही बिस्तर छोड़ता था.

यह सिलसिला कई महीनों से निर्बाध रूप से चला आ रहा था. किन्तु आज मुर्गे को बाँग दिए लगभग आधे घंटे हो गए, अलार्म नहीं बजा. मेरा माथा ठनका. उठकर घड़ी में समय देखा, तो अभी सुबह के साढ़े तीन बज रहे थे. क्रोध से शरीर काँपने लगा. मुर्गे की एक लापरवाही ने पूरी नींद खराब कर दी.

जैसे-तैसे सुबह हुई. तैयार होकर ऑफिस पहुँचा, तो पता चला कि मेरी सहायिका ने अचानक छुट्टी ले ली थी. पूरा मूड चौपट हो गया. ऑफिस का जो भी काम था, किसी तरह जल्दी-जल्दी निपटाकर लंच के एक घंटे पश्चात ही घर के लिए रवाना हो गया. संयोग से बगीचे में ही मुर्गे से मुलाक़ात हो गयी, जो मस्ती में गाना गाते हुए चहलकदमी कर रहा था.

उसे देखते ही सारा क्रोध आँखों में उतर आया. किसी तरह अपने-आपको संयमित करते हुए पहुँच गया उसके सामने. वह देखते ही मुस्कराकर बोला - "भैया प्रणाम! बहुत जल्दी आ गए ऑफिस से?"

उसकी मीठी मुस्कान ने आग में घी का काम किया और मैं भड़क गया - "ये सब छोड़, पहले ये बता कि सुबह तूने इतनी जल्दी बाँग क्यों दी?"

वह शर्माने लगा. बोला - "वो बात यह है भैया कि सुबह साढ़े तीन बजे पड़ोस की मुर्गी के साथ मुझे डेट पर जाना था. तो मैंने सोचा कि जाने के पहले काम ख़तम कर लूं, पता नहीं वापसी में कितना समय लगे?"

मेरा पारा सातवें आसमान पर जा पहुंचा. मैं बोला - "क्या तुझे थोडा भी आभास है कि अपने छोटे से स्वार्थ के लिए तूने कितने लोगों की नीद खराब कर दी?"

मुर्गे ने बड़ी मासूमियत से कहा - "बिगड़ क्यों रहे हो? आप भी तो आज ऑफिस से जल्दी आ गए. आपने भी तो वही किया जो मैंने किया. तो फिर मेरे ऊपर इतना क्रोधित क्यों हो रहे हैं? रही बात डेट पर जाने की, तो सभी लोग प्यार करते हैं, शादी करते हैं, बच्चे पैदा करते हैं. इसीलिये तो भगवान् ने स्त्री और पुरुष दोनों की रचना की है."

उसके इस उत्तर पर मैं बौखला गया और कहा - "क्रोधित क्यों हो रहा हूँ? डेट पर जाने के लिए लोगों को तकलीफ देना कहाँ तक ठीक है? अरे! तुझे अपनी सामाजिक जिम्मेदारी का कुछ अहसास है कि नहीं?"

मुर्गा भड़क उठा और कहा - "मैं कुछ नहीं बोल रहा हूँ तो सिर पर चढ़े जा रहे हैं आप. आप जैसे आदमी को सामाजिक जिम्मेदारी की बात करते हुए शोभा नहीं देता. जोरू के गुलाम हैं आप. माँ-बाप की हमेशा उपेक्षा करते हैं, उनकी कोई बात नहीं सुनते. अपने ही बच्चों का ध्यान नहीं है. पढ़ रहे हैं या घूम रहे हैं? पढ़ रहे हैं, तो क्या पढ़ रहे हैं? परीक्षा में कितना नंबर आया है, यह भी पता नहीं है, और मुझे सिखाते हैं सामाजिक जिम्मेदारी! पहला अपने घर की जिम्मेदारी देखिये, फिर किसी और को सामाजिक जिम्मेदारी का पाठ पढ़ाइये."

"बड़ा बदतमीज है तू." मैंने कहा - "नैतिकता नाम की कोई चीज ही नहीं है तेरे अन्दर."

मुर्गा बोला - "अब नैतिकता का पाठ भी मुझे आपसे पढ़ना पड़ेगा? बच्चों के सामने सिगरेट पीते हैं, अपने बाप की उम्र के लोगों का मज़ाक उड़ाते हैं, पत्नी के होते हुए भी लेडीज बीयर बार की सैर करते हैं, ऑफिस की लड़कियों के सामने ऊटपटांग बातें करते हैं. फिर भी नैतिकता की बात करते हुए शर्म नहीं आती?"

उसके इस जवाब पर मैं खिसियाकर रह गया. सारी अकड़ ढीली पड़ गयी. फिर भी आवाज में थोड़ी सख्ती लाते हुए बोला - "बड़े-छोटे का लिहाज नहीं है तेरे अन्दर, तभी से जवाब पर जवाब दिए जा रहा है?"

मुर्गे ने कहा - "नहीं, मैं आपके जैसा बिलकुल नहीं हूँ. इसीलिये इतना सब कुछ सुनने के बावजूद भी मैं आपको 'आप' कहकर ही बुला रहा हूँ. वर्ना कौन सा आपका दिया खाता हूँ कि आपकी बात सुनूं? अब यह लेक्चरबाजी बंद कीजिये और घर जाइए. और हाँ, एक बात और, पहले अपने-आपको सुधारिए, फिर दूसरों को शिक्षा देने के बारे में सोचियेगा. प्रणाम!"

इतना कहकर वह फिर से गुनगुनाते हुए चल दिया और मैं अवाक खड़ा उसको जाते हुए देखता रहा.

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