श्रांत/क्लांत/निश्चल
दरवाजे के चौखट पर बैठीं
अम्मा!
निर्निमेष भाव से
एकटक
देखे जा रही थीं
कड़क/तपती/खड़ी दुपहरी में तपते
किन्तु, छाया प्रदान करते
टिकोरों से लदे हुए
अमोले को।
निश्चय किया था
उन्होंने और पिताजी ने
रोपेंगे एक वृक्ष
अपने पुत्र के जन्म के मौके पर;
और रोपा था इस अमोले को
अपने एकमात्र पुत्र के जन्म के समय।
इस तरह
जन्म दिया था दो पुत्रों को
एक जड़;
एक चेतन!
दोनों बढ़े
विकसित हुए
स्वावलम्बी हुए।
जड़ अभी भी वहीं खड़ा है
चुपचाप
तपती/चिलमिलाती धूप में
शीतल छाया प्रदान करता;
अम्मा-पिताजी के परिश्रम का/
प्रेम और वात्सल्य का/
त्याग का
प्रतिफल प्रदान करता।
और चेतन...?
खो गया है कहीं
दुनिया की भीड़ में
उन्नति के शिखर की ओर अग्रसर
आधुनिकता का हाथ थामे हुए
पुरातन सोच/
पुरातन परम्पराओं से
पीछा छुड़ाकर,
विवश बुढ़ापे को
अकेलापन/घुटन देकर
खो गया है कहीं
हमारा चेतन!
इस कलियुग में दूर दूर भटकते चैतन्य स्वरुप का मन और चित्त यदि अपनी जड़ों को मजबूती प्रदान करता है तो यह उसका स्वाभाविक रूप है और यदि वो अपनी जड़ों को भूलकर सांसारिक बंधनों में बंध जाता है तो मुझे लगता है ``हमारा चेतन कहीं खो गया है``..अन्यथा वो सदैव अपने मूल में ही रहता है..यही इस ``जड़ और चेतन`` बंधुओं का प्रेम-सन्देश है...ॐ नमः शिवाय..ॐ हनुमते नमः
जवाब देंहटाएंराजेश भाई,
जवाब देंहटाएंआपकी कविता में भाव और भाषा अपने सहज प्रवाह में बहते हुए दिखे... अच्छा लगा। बधाई!