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आओ मिलकर दीप जलाएं ।।

आओ मिलकर दीप जलाएँ ।। हर जन हों खुशहाल यहाँ पर,  हर मन का अवसाद मिटाएँ ।। आओ मिलकर दीप जलाएँ ।। हर कोने से भगे अँधेरा, हर कोने में जगे उजाला । ज्ञान-प्रकाश चहूँ दिशि फैले, हर हिय भरा प्रेम का प्याला ।। ऐसी ज्योति जले जग जगमग, छवि बिलोकि रवि कोटि लजाएँ ।। आओ मिलकर दीप जलाएँ ।। भूखे पेट न सोए हरिया, हर तन कपड़ा, हर मन शिक्षा ।  बिटिया निकले जब जी चाहे,  बचपन कहीँ न माँगे भिक्षा ।। घर-घर में पलतीं हों खुशियाँ ,  हम ऐसा इक राष्ट्र बनाएँ ।। आओ मिलकर दीप जलाएँ ।।

कोविड-19 : चुनौती और अवसर

 आप सभी को सादर नमन! आज पूरी दुनिया के साथ हमारा देश भी विषाणु जनित एक भयंकर बीमारी से जूझ रहा है। कोविड-19 नामक एक नए कोरोना वायरस से उत्पन्न इस अत्यंत संक्रामक रोग का अभी तक कोई उपचार उपलब्ध नहीं है जो इस दुसाध्य रोग  की भयावहता को असीमित कर देता है। दुनिया के तमाम विकसित देशों की उच्चतम कोटि की चिकित्सकीय सुविधाएं भी इसके सम्मुख बेबस खड़ी है। अमेरिका और यूरोपीय संघ के अनेक अनेक देशों को इतना असहाय और लाचार शायद ही किसी ने कभी देखा हो। अरबों लोग अपने घरों में कैद हैं। मंगल विजय से दर्पित सूर्य तक पहुंचने की महत्वाकांक्षा लिए हुए आधुनिक विज्ञान की छत्रछाया में अग्रसर होता मनुष्य एक अत्यंत सूक्ष्म विषाणु के भय से अपने ही घर के दरवाजे से बाहर नहीं निकल पा रहा है। उसकी सारी गतिशीलता समाप्त होती जा रही है। मानों सारा चेतन जड़ होता जा रहा है। सारा चेतन जड़ होता जा रहा है? क्या  सचमुच? क्या घरों से बाहर निकलना ही चेतनता है या फिर भागते पैर और थिरकते कदम? हमारे शरीर का गतिमान होना ही चेतनता है या विकास की अंधी दौड़ में अपने-पराए को रौंदते हुए आगे बढ़ जाना? अपनी  संस्कृति, परंपरा, मूल्यों और

यादों के झरोखों से

कर्मरत इस थकित मन ने, ज्यों तनिक विश्राम पाया। मौन ज्यों मुखरित हुआ अरु सलिल सुरभित कुनमुनाया। ज्यों झुकीं पलकें दृगों पर ज्यों तिमिर आँखों में आया। खोल खिड़की स्मृति पटल की बिम्ब तेरा झिलमिलाया।। याद फिर आने लगे वो प्यार के मौसम सुहाने। झूमती गाती हवाएँ वो मधुर मीठे तराने। खिलखिलाती सी चहकती चन्द्रिमा के वो फसाने। मिलन के मासूम से वो स्नेह में लिपटे बहाने।। देखना, पलकें झुकाना, पर नहीं कुछ बोल पाना। साथ रहना, कुछ न कहना, किन्तु कब प्रिय दूर जाना? दिवस हो या हो निशा कब चैन किंचित कौन पाया? खोल खिड़की स्मृति पटल की बिम्ब तेरा झिलमिलाया।। जब कभी भी तुम गुजरती कृष्ण केशों को उड़ाती। साँस से अपनी गमकती, साँस मेरी महमहाती। मदन के तूणीर से ले स्नेह शर दृग पर नचाती। भेदती मेरे हृदय को विजय दर्पित मुस्कराती।। यूँ लगे तपती धरा पर  वारि बूँदें गिर रही हों। मृत्तिका सोंधी सुरभि से श्वाँस सुरभित कर रही हो। प्रिय धरित्री को जलद ने नेह