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कोविड-19 : चुनौती और अवसर

 आप सभी को सादर नमन!

आज पूरी दुनिया के साथ हमारा देश भी विषाणु जनित एक भयंकर बीमारी से जूझ रहा है। कोविड-19 नामक एक नए कोरोना वायरस से उत्पन्न इस अत्यंत संक्रामक रोग का अभी तक कोई उपचार उपलब्ध नहीं है जो इस दुसाध्य रोग  की भयावहता को असीमित कर देता है। दुनिया के तमाम विकसित देशों की उच्चतम कोटि की चिकित्सकीय सुविधाएं भी इसके सम्मुख बेबस खड़ी है। अमेरिका और यूरोपीय संघ के अनेक अनेक देशों को इतना असहाय और लाचार शायद ही किसी ने कभी देखा हो। अरबों लोग अपने घरों में कैद हैं। मंगल विजय से दर्पित सूर्य तक पहुंचने की महत्वाकांक्षा लिए हुए आधुनिक विज्ञान की छत्रछाया में अग्रसर होता मनुष्य एक अत्यंत सूक्ष्म विषाणु के भय से अपने ही घर के दरवाजे से बाहर नहीं निकल पा रहा है। उसकी सारी गतिशीलता समाप्त होती जा रही है। मानों सारा चेतन जड़ होता जा रहा है।

सारा चेतन जड़ होता जा रहा है? क्या  सचमुच? क्या घरों से बाहर निकलना ही चेतनता है या फिर भागते पैर और थिरकते कदम? हमारे शरीर का गतिमान होना ही चेतनता है या विकास की अंधी दौड़ में अपने-पराए को रौंदते हुए आगे बढ़ जाना? अपनी  संस्कृति, परंपरा, मूल्यों और धरोहरों के प्रति उपेक्षा या तिरस्कार चेतनता है या फिर अपनी, अपने पत्नी और बच्चों की असीमित विलासिता पूर्ण लालसाओं की पूर्ति के लिए मां-बाप की मूलभूत आवश्यकताओं की बलि चढ़ा देना? पशुओं जैसी निरंकुशता, उद्दंड स्वेच्छाचारिता, निर्लज्ज नग्नता तथा अनियमित और अमर्यादित संभोग चेतनता है या फिर पैसों से बनते-बिगड़ते सामाजिक संबंध? मुझे तो लगता है कि वह चेतना तो कब की मर चुकी है। आज हमने अनेकानेक अनावश्यक आभासी बंधनों में अपने आप को जकड़ रखा है जिनसे बाहर निकलना अत्यंत मुश्किल है क्योंकि हमें इसका पता भी नहीं है। जैसे जीव इस संसार को ही सत्य मानकर उसी में भ्रमित होता रहता है वैसे ही हम इन अदृश्य एवं आभासी बंधनों में बंध कर इतने व्यस्त हो गए हैं कि हमें अपनी मौलिकता का कोई ज्ञान ही नहीं रह गया है। हमारा स्वस्थ एवं मौलिक चिंतन मृतप्राय हो गया है और हमारी चेतना - वह तो कब की जड़ हो चुकी है।

कोविड-19 से फैली यह बीमारी निसंदेह एक दुर्जेय आपदा है जिसका सामना संपूर्ण मानव समुदाय को साथ मिलकर करना होगा। अन्य देशों द्वारा की गई या की जा रही गलतियों से सबक लेते हुए भारत सरकार ने उत्कृष्ट दूरदर्शिता का परिचय दिया तथा बहुत पहले से ही उसने युद्ध स्तर पर तैयारियां प्रारंभ कर दीं जिसके परिणाम स्वरूप अन्य देशों की तुलना में हमारे देश में इसका संक्रमण तेजी से नहीं होने पाया। अगले चरण में इसकी भयानक विभीषिका को प्रारंभिक स्तर पर ही उन्मूलित  करने हेतु पहले जनता कर्फ्यू, अगले ही दिन जिला और राज्य स्तर पर लॉकडाउन तथा अंततः पूरे देश में संपूर्ण लॉकडाउन की घोषणा करके सरकार ने अत्यंत दूरदर्शिता एवं दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय दिया है और अवश्यंभावी विजय-पथ पर अपना कदम बढ़ा दिया है। केंद्र सरकार, राज्य सरकारें, महानगरपालिकाएं, नगरपालिकाएं, चिकित्सा विभाग, पुलिस, मीडिया तथा अन्य अनेक विभागों के कर्मचारियों के साथ-साथ अनेक स्वयंसेवी संस्थाएं और व्यक्तिगत स्तर पर भी लोग इस लड़ाई की अगली पंक्ति में खड़े होकर नेतृत्व कर रहे हैं। उन्हें शत-शत नमन! कोटिशः प्रणाम!

निर्विवाद रूप से यह संपूर्ण विश्व और मनुष्य समाज के लिए एक बहुत ही बड़ी चुनौती है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि मनुष्य ने इससे बड़ी और भयानक चुनौतियों का सामना किया है तथा विजय भी पाई है। इस चुनौती पर भी हम अंततः विजय पा ही लेंगे। लेकिन  उसके पूर्व इसके कारण यह जो विनाश हो रहा है और जो विनाश होगा, उसकी तो अभी कल्पना भी नहीं की जा सकती। साथ ही समाज और अर्थव्यवस्था पर इसका दुष्प्रभाव पूरी दुनिया को झकझोर  कर रख देगा। हमें उस आगामी विभीषिका का पूरी ताकत से मुकाबला करने के लिए मानसिक तौर पर तैयार रहना होगा तथा सरकार द्वारा किए जा रहे प्रयासों की सराहना करते हुए इस आपदा से उबरने में उसका तन-मन-धन से सहयोग करना होगा और तमाम आलोचनाओं एवं विरोधी टिप्पणियों की भरमार के बीच कदम-कदम पर उसके साथ मजबूती से खड़े रहना होगा।

 इतिहास गवाह है कि हमारे समक्ष जितनी बड़ी चुनौती आती है उतनी ही बड़े समाधान की आवश्यकता होती है। और यह हमें उतनी अधिक संभावनाएं और उतना ही बड़ा अवसर प्रदान करती है। क्योंकि यह एक बड़ी चुनौती है अतः जाते-जाते यह हमें एक लंबी छलांग लगाने के लिए उतना ही बड़ा अवसर और प्टलेफॉर्म प्रदान करेगी। हमें इस समय सारी दुश्चिंता को भूलकर उस आने वाले अवसर के बारे में सोचना चाहिए। यह जो लॉक डाउन का समय है और जिसके बारे में "कैसे कटेगा" सोचकर अधिकांश लोग हलकान हो रहे हैं, अत्यंत अनमोल है। प्रकृति ने हमें एक मौका दिया है चिंतन करने का, रुक कर पीछे झांकने का और देखने का कि हम जिस दिशा में जा रहे हैं वह सही है या नहीं? सोचने का कि इस आपा-धापी में हम जो पीछे छोड़ आए हैं उसे पुनः कैसे प्राप्त किया जा सकता है? शांतचित्त होकर मनन करने का कि आगे का रास्ता जिस मंजिल की ओर जाता है वह हमारी भावी पीढ़ी के लिए सही है या नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं है कि तेजी से आगे बढ़ने के चक्कर में हम सही राह से भटक गए हैं और अपनी अनमोल चीजों से दूर होते जा रहे हैं?

 अंततोगत्वा इस कठिन समय में देश की संपूर्ण जनता को साथ खड़े देखकर आंखें खुशी से भींग जाती हैं। इस राष्ट्र और समाज को एकजुट करने के लिए जो प्रयास हमारे कुछ महापुरुष एवं स्वयंसेवी संस्थाएं वर्षों से करती चली आ रही है तथा जिसके लिए उन्होंने अनगिनत बलिदान दिए हैं, उसे 2014 में मोदी के प्रधानमंत्री बनने के पश्चात एक नया आयाम मिला और आज इस विपत्ति के समय में उसका मूर्त रूप देखकर छाती छप्पन इंच की हो जाती है। हां, कुछ पप्पुओं-गप्पुओं को इससे अलग रख सकते हैं जो खुद घोड़ी नहीं चढ़ सके इसलिए दूसरे घुड़सवारों पर पत्थर फेंकते रहते रहते हैं। जयचंद तो हर युग में हुए हैं लेकिन वर्तमान सरकार और इसकी भावी पीढ़ी के पास उनका अचूक इलाज है। 

एक बार पुनः आप सभी का वंदन और अभिनंदन! 

- राजेश मिश्र

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