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राम की अयोध्या

सदा ही रही है सदा ही रहेगी, पुरी पावनी पूजनीया अयोध्या। सभी जानते हैं सभी मानते हैं, सदा राम की वंदनीया अयोध्या।। जहाँ राम जन्मे जहाँ राम खेले, जहाँ राम राजें वही है अयोध्या। रहे सर्वदा राम की ही अयोध्या, सदा राम की ही रही है अयोध्या।।

मेरे जीवनसाथी

मनभावन तुम मनमीत मेरे। तुमसे ही हैं ये गीत मेरे।। जीवन के पतझड़ की बहार। निर्झर नयनों का पुलक प्यार। साँसों का सुखद स्पर्श तेरी, मलयज शीतल सुरभित बयार।। मृदु वचन सुभग संगीत तेरे।। तुमसे ही हैं ये गीत मेरे।। तेरा यौवन तेरी काया। काले केशों की घन छाया। बाहें तेरी ज्यों कमलनाल, अधरों पर अरुण अरुण छाया।। हर हाव-भाव में प्रीत तेरे।। तुमसे ही हैं ये गीत मेरे।। झंकृत करके मन-वीण तार। धुन छेड़ो जिसमें प्यार-प्यार। हम डूबें डूबें, जग डूबे, हो प्रेम वृष्टि ऐसी अपार।। कर दो बेसुध मनमीत मेरे।। तुमसे ही हैं ये गीत मेरे।। जीवनधारा, जीवनसंगिनि। जीवन नहिं जीवन तेरे बिन। यूँ ही बरसाती रहना तुम, यह प्रेम-सुधा मुझ पर निशिदिन।। हे हृदयेशा परिणीत मेरे।। तुमसे ही हैं ये गीत मेरे।।

आये हैं राम हमारे, आज मेरे द्वारे

आए हैं राम हमारे, आज मेरे द्वारे। सिय लक्ष्मण संग पधारे, आज मेरे द्वारे।। प्रभु ने आज दया दिखलाई। जनम-जनम की निधि है पाई।। सुर-मुनि को भी दुर्लभ हैं जो। आज हमारे द्वार खड़े वो।। दशरथ के प्राण अधारे, आज मेरे द्वारे। आए हैं राम हमारे, आज मेरे द्वारे।। प्रिय हनुमान साथ में आए। तन-मन झूमे, दृग जल छाए।। बावरि की गति भई हमारी। दर्शन दिए भगत भय हारी।। बन चातक नैन निहारें, आज मेरे द्वारे। आए हैं राम हमारे, आज मेरे द्वारे।। धन्य-धन्य यह अधम शरीरा। जिसको स्पर्श किए रघुवीरा।। चाहूँ नहिं कैवल्य परम पद। केवल प्रभु चरणों की चाहत।। सेवूँ नित साँझ-सकारे, आज मेरे द्वारे। आए हैं राम हमारे, आज मेरे द्वारे।। सिय लक्ष्मण संग पधारे, आज मेरे द्वारे। आए हैं राम हमारे, आज मेरे द्वारे।।

जड़ों से जुड़ा अस्तित्व

कल रात को नींद नहीं आ रही थी। बहुत देर तक बिस्तर पर करवटें बदलने के पश्चात् बेडरूम से निकल आया और हॉल की खिड़की के पास खड़ा होकर गमलों में लगे पौधों को अनायास ही घूरने लगा। पिछली बार इन्हें इतने ध्यान से कब देखा था, याद नहीं। वह तो आज इनका सौभाग्य था कि मोबाइल बेडरूम में ही रह गया था और रात अधिक होने के कारण टीवी चालू नहीं किया, अन्यथा इन पर ध्यान देने के लिए फुर्सत कहाँ? सामान्यतः ये भी बूढ़े माँ-बाप की तरह सुबह-शाम पानी और महीने दो महीने में मिटटी-खाद पाकर पड़े रहते हैं किसी कोने में। तीव्र विकास के इस दौर में समय इतना मूल्यवान है कि इन अनप्रोडक्टिव चीज़ों के लिए टाइम कौन बर्बाद करे! जीने के लिए जरूरी खाना-पानी मिल रहा है, यही क्या कम है? व्यस्तता इतनी कि फेसबुक और व्हाट्सऐप के लिए भी समय नहीं। न तो फेसबुकिया मित्रों के पोस्ट पढ़ पा रहे हैं और न ही लाइक या कमेंट कर पा रहे हैं। दुष्परिणाम यह कि यदि कुछ पोस्ट करते हैं या फिर प्रोफाइल पिक्चर चेंज करते हैं तो अब पहले की तरह लाइक-कमेंट भी नहीं मिल पाते।  व्हाट्सऐप पर चैट करने के लिए समय नहीं मिल पाता और कुछ ख़ास मित्रगण फोन कर हालचाल पूछने में

प्रभु की अनुकम्पा

हर दुख सहकर घबराकर भी छल-छद्म नहीं मैं सीख सका प्रभु की अनुकम्पा पाकर ही इस कल्मष से मैं वीत सका मुझको तुझ पर विश्वास सदा तू पग-पग मुझे सँभालेगा हो भँवर भयंकर कितनी भी तू हरदम मुझे निकालेगा तेरे सम्बल के कारण ही यह पाप न मुझको खींच सका प्रभु की अनुकम्पा पाकर ही इस कल्मष से मैं वीत सका मैं कदम-कदम ठोकर खाया अरु दर-दर पर अपमान सहा ध्रुव अटल भरोसा तेरा था जीवन-पथ पर बढ़ता ही रहा तेरी अनुभूति रही ऐसी यह अधम मुझे नहिं रीझ सका प्रभु की अनुकम्पा पाकर ही इस कल्मष से मैं वीत सका

कलि के दोहे

करते कलयुग में सदा, वंचक ही हैं राज । वचन-कर्म में भेद अरु, नहिं प्रपंच से लाज ।। मैं हूं, मैं बस मैं यही, है कलयुग का नेम । करुणा मरती जा रही, सूख रहा है प्रेम ।। वंचक का कलिकाल में, करते हैं सब मान । सच्चरित्र का हो भले, मन में बहु सम्मान ।। नंगा जो जितना बड़ा, उतना पूजा जाय । कलि में अपमानित रहे, जिसका सरल सुभाय ।।

कायर

बैठी थी वह दो मिनट का अवकाश लेकर अपने दुधमुँहे बच्चे के साथ ममता से सराबोर समेटे हुए आँचल में उस नवजात को स्तनपान कराती, दुलराती ! मगन था वह भी माँ के आँचल तले अमृत-रस-पान करता हुआ परमसुख, परमानंद की अनुभूति के साथ ! तभी अचानक ! एक झटका लगा जोर का, बहुत जोर का लगा जैसे आ गया हो कोई प्रलयंकारी भूकम्प काँप उठी हो धरती चिग्घाड़ उठा हो आसमान और वह नवजात जा गिरा दूर अपनी माँ की गोद से कंकड़ीली, ऊबड़-खाबड़ तप्त भूमि पर. गिरी पड़ी थी उसकी माँ भी तड़पती, कराहती असीम वेदना से पकड़े हुए अपनी पीठ को एक हाथ से, और फैलाये हुए दूसरा हाथ अपने अबोध शिशु की ओर चीखती, चिग्घाड़ती, बिलबिलाती, गिड़गिड़ाती देखती हुई कातर आँखों से कभी अपने निरपराध निरीह पुत्र को तो कभी उस दैत्याकार, बर्बर, क्रूर ठेकेदार को, जिसकी लात के आघात से धरती पर पड़ी कराह रही थी वह और उसका बच्चा भी. रो रहे थे माँ बेटे तड़प रहे थे, चिग्घाड़ रहे थे और.. इस अपार वेदना और करुण क्रन्दन के बीच सोच रहा था वह नन्हा मासूम प्रयास कर रहा था समझने का इस पूरे घटनाक्रम को, और कोशिश कर रहा था जानने की - &q

सपने बड़े हो गये हैं !

अहा ! वह बचपन. प्रतिदिन प्रात: उषा जब द्वार के पट खोलती थी नवोदित अरुण की चंचल रश्मियाँ घुस आती थीं मेरे कमरे में एक छोटे से झरोखे से भागती हुई, प्रकाश भरने नवचेतना, नयी स्फूर्ति देने मेरी रात के अँधेरे से लड़कर थककर सोयी हुई नींद से बोझिल आँखों को. तभी अम्मा प्यार से सिर सहलाते, दुलारते मीठे मधुर शब्दों में कहतीं- "उठ जा बेटा ! सुबह हो गयी है देखो, सूरज भी निकल आया है और मैं कुनमुनाते हुए करवट बदल लेता था और सोने के लिए, अचानक टूट जाने वाले आधे-अधूरे सपनों को पूरा करने के लिए, क्योंकि सुना था कि सुबह के सपने अक्सर सच हो जाते हैं. उम्र के साथ अब सपने भी बड़े हो चले हैं. नहीं समाते हैं अब बंद आँखों में, दे जाते हैं दर्द, चुरा लेते हैं नींद, और उन्हें देखने के लिए अब आँखें बंद नहीं करनी पड़तीं खुली रखनी पड़ती हैं, और उन्हें पूरा करने के लिए अब सोना नहीं, जागना पड़ता है !

श्रीराम

सत्य चित आनन्द घन प्रभु राम सब सुख धाम हैं । भक्त परिपालक मृदुल चित प्रभु सकल गुण-ग्राम हैं । मातु-पितु-गुरु-बन्धु हित रत प्रिय प्रजा परित्राण हैं । कौशलेय नमस्य निशिदिन कैकयी के प्राण हैं ।। मनुज तन धारे पधारे देव नर दुख हरण को । गाधिसुत के संग निकले माँ अहिल्या तरण को । खण्ड हर कोदण्ड करि प्रभु जनक की पीड़ा हरी । भृगुतनय के संग मिलि पुनि थी तनिक क्रीड़ा करी ।। जानकी को साथ ले प्रभु पुर अयोध्या आ गये । हर्ष से उल्लसित जन-मन स्वर्ग-निधि ज्यों पा गये । प्रिय प्रजा की घोर इच्छा राम ही युवराज हों । चक्रवर्ती भूप दशरश क्यों न प्रमुदित आज हों ।। पर प्रजा हित राम ने वन गमन का निर्णय किया । मति फिरी कैकयसुता की भूप से हठ वर लिया । वेष धर यति का चले वन राम-लक्ष्मण-जानकी । मातु इच्छा अरु पिता के लाज रखने आन की ।। चरण केवट ने पखारा तर गया संसार से । जगत तारणहार को ले नाव में निज प्यार से । हर्ष से स्वागत किये मुनि-वृंद प्रभु श्रीराम का । जानकी के कंत का प्रभु परम करुणाधाम का ।। अब समय था आ चला सब राक्षसों के अन्त का । नाश के आतंक का अरु क्षेम के सब सन्त का

माँ भारती

शोभे शुभ्र हिमाद्रि, शिरोभूषण शिख सुन्दर । पाँव पखारत उदधि, मगन मन मुदित मनोहर ।। सिञ्चति सुरसरि सूर्य-सुता पावन शीतल जल । शस्य श्याम परिधान, परम परिकीर्ण परिचपल ।। सुरभित सरस समीर, श्वाँस त्रय ताप नसावन । चारु चंद्रिका चपल, मधुर स्मित सरल सुहावन ।। गुञ्जत गायन गाथ, दसों-दिश जल-थल-नभ में । वेद-ऋचा धुनि नाद, गहन गिरि-कानन जन में ।। ज्ञान-ध्यान-तप-योग, दिया तूने संसृति को । चरमोत्कर्ष प्रदान, किया अनुपम विधि-कृति को ।। अञ्चल अमिय असीम, दिव्य औषधि की जननी । सुयश अमित माँ कहत, थकित गणनायक अँकनी ।। सुर-नर-मुनि नित पूज्य, परम पावन ऐश्वर्या । धन्य-धन्य वह देह, मिटे माँ की परिचर्या ।।