करते कलयुग में सदा, वंचक ही हैं राज ।
वचन-कर्म में भेद अरु, नहिं प्रपंच से लाज ।।
मैं हूं, मैं बस मैं यही, है कलयुग का नेम ।
करुणा मरती जा रही, सूख रहा है प्रेम ।।
वंचक का कलिकाल में, करते हैं सब मान ।
सच्चरित्र का हो भले, मन में बहु सम्मान ।।
नंगा जो जितना बड़ा, उतना पूजा जाय ।
कलि में अपमानित रहे, जिसका सरल सुभाय ।।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें