बैठी थी वह
दो मिनट का अवकाश लेकर
अपने दुधमुँहे बच्चे के साथ
ममता से सराबोर
समेटे हुए आँचल में उस नवजात को
स्तनपान कराती, दुलराती !
मगन था वह भी
माँ के आँचल तले
अमृत-रस-पान करता हुआ
परमसुख, परमानंद की अनुभूति के साथ !
तभी अचानक !
एक झटका लगा
जोर का, बहुत जोर का
लगा जैसे आ गया हो
कोई प्रलयंकारी भूकम्प
काँप उठी हो धरती
चिग्घाड़ उठा हो आसमान
और वह नवजात
जा गिरा दूर अपनी माँ की गोद से
कंकड़ीली, ऊबड़-खाबड़
तप्त भूमि पर.
गिरी पड़ी थी उसकी माँ भी
तड़पती, कराहती असीम वेदना से
पकड़े हुए अपनी पीठ को
एक हाथ से,
और फैलाये हुए दूसरा हाथ
अपने अबोध शिशु की ओर
चीखती, चिग्घाड़ती, बिलबिलाती, गिड़गिड़ाती
देखती हुई कातर आँखों से
कभी अपने निरपराध निरीह पुत्र को
तो कभी उस
दैत्याकार, बर्बर, क्रूर
ठेकेदार को,
जिसकी लात के आघात से
धरती पर पड़ी कराह रही थी वह
और उसका बच्चा भी.
रो रहे थे माँ बेटे
तड़प रहे थे, चिग्घाड़ रहे थे
और..
इस अपार वेदना और करुण क्रन्दन के बीच
सोच रहा था वह नन्हा मासूम
प्रयास कर रहा था समझने का
इस पूरे घटनाक्रम को,
और कोशिश कर रहा था जानने की -
"क्यों मारा उसने मेरी माँ को?
क्या अपराध था उसका?
क्या सुबह से शाम तक
दुर्दिन और दुर्भाग्य के
पाटों के बीच पिसना, फिर भी
अपनी अस्मत की रक्षा हेतु संघर्षरत रहना
यही अपराध था उसका?
या फिर,
पति के आकस्मिक निधन के पश्चात् भी
समाज से लड़ते हुए
स्वाभिमान से जीने का प्रयत्न ?
क्या अपने भूख से तड़पते
बिलखते बच्चे के लिए
दो मिनट का अवकाश लेना उसका अपराध था?
या फिर,
भूखे भेड़ियों के समक्ष
आत्मसमर्पण न करना?
और यह कायर तमाशबीन भीड़ !
मौन है जो हस्तिनापुर के सभासदों की भाँति,
जैसे वे मौन थे
द्रौपदी के चीरहरण के समय
आमंत्रण देते भयंकर विनाश को.
दबा रखा है इन्होंने
प्रतिरोध के स्वर को
प्रतीक्षा में
अपनी-अपनी बारी की.
अरे कायरों !
मिटोगे तुम भी एक दिन
एक-एक कर, असहाय
एकदूसरे का मुँह ताकते
किन्तु, हाथ छुड़ाते हुए
मिटोगे तुम भी,
यदि अभी भी नहीं जागे
मिटोगे तुम भी एक दिन !
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