सत्य चित आनन्द घन प्रभु राम सब सुख धाम हैं ।
भक्त परिपालक मृदुल चित प्रभु सकल गुण-ग्राम हैं ।
मातु-पितु-गुरु-बन्धु हित रत प्रिय प्रजा परित्राण हैं ।
कौशलेय नमस्य निशिदिन कैकयी के प्राण हैं ।।
भक्त परिपालक मृदुल चित प्रभु सकल गुण-ग्राम हैं ।
मातु-पितु-गुरु-बन्धु हित रत प्रिय प्रजा परित्राण हैं ।
कौशलेय नमस्य निशिदिन कैकयी के प्राण हैं ।।
मनुज तन धारे पधारे देव नर दुख हरण को ।
गाधिसुत के संग निकले माँ अहिल्या तरण को ।
खण्ड हर कोदण्ड करि प्रभु जनक की पीड़ा हरी ।
भृगुतनय के संग मिलि पुनि थी तनिक क्रीड़ा करी ।।
गाधिसुत के संग निकले माँ अहिल्या तरण को ।
खण्ड हर कोदण्ड करि प्रभु जनक की पीड़ा हरी ।
भृगुतनय के संग मिलि पुनि थी तनिक क्रीड़ा करी ।।
जानकी को साथ ले प्रभु पुर अयोध्या आ गये ।
हर्ष से उल्लसित जन-मन स्वर्ग-निधि ज्यों पा गये ।
प्रिय प्रजा की घोर इच्छा राम ही युवराज हों ।
चक्रवर्ती भूप दशरश क्यों न प्रमुदित आज हों ।।
हर्ष से उल्लसित जन-मन स्वर्ग-निधि ज्यों पा गये ।
प्रिय प्रजा की घोर इच्छा राम ही युवराज हों ।
चक्रवर्ती भूप दशरश क्यों न प्रमुदित आज हों ।।
पर प्रजा हित राम ने वन गमन का निर्णय किया ।
मति फिरी कैकयसुता की भूप से हठ वर लिया ।
वेष धर यति का चले वन राम-लक्ष्मण-जानकी ।
मातु इच्छा अरु पिता के लाज रखने आन की ।।
मति फिरी कैकयसुता की भूप से हठ वर लिया ।
वेष धर यति का चले वन राम-लक्ष्मण-जानकी ।
मातु इच्छा अरु पिता के लाज रखने आन की ।।
चरण केवट ने पखारा तर गया संसार से ।
जगत तारणहार को ले नाव में निज प्यार से ।
हर्ष से स्वागत किये मुनि-वृंद प्रभु श्रीराम का ।
जानकी के कंत का प्रभु परम करुणाधाम का ।।
जगत तारणहार को ले नाव में निज प्यार से ।
हर्ष से स्वागत किये मुनि-वृंद प्रभु श्रीराम का ।
जानकी के कंत का प्रभु परम करुणाधाम का ।।
अब समय था आ चला सब राक्षसों के अन्त का ।
नाश के आतंक का अरु क्षेम के सब सन्त का ।
राम ने माया रची मिलि प्राणप्यारी जानकी ।
हीन दशकन्धर भगिनि भइ नासिका अरु कान की ।।
नाश के आतंक का अरु क्षेम के सब सन्त का ।
राम ने माया रची मिलि प्राणप्यारी जानकी ।
हीन दशकन्धर भगिनि भइ नासिका अरु कान की ।।
मृग बना मारीचि स्वर्णिम सियहरण दशमुख चला ।
हैं सृजक चल-अचल के प्रभु सोचता उसने छला ।
गीध ने आहुति चढ़ा दी प्राण की प्रभु काज में ।
पद मिला प्रभु धाम में वह हुआ पूज्य समाज में ।।
हैं सृजक चल-अचल के प्रभु सोचता उसने छला ।
गीध ने आहुति चढ़ा दी प्राण की प्रभु काज में ।
पद मिला प्रभु धाम में वह हुआ पूज्य समाज में ।।
भीलनी की चिर प्रतीक्षा को सुखद अवसान दे ।
बालि-वध सुग्रीव को नित अभय का वरदान दे ।
संग वानर-भालु को ले बाँध सागर को दिया ।
हत दशानन कुल सहित सुर-मुनि-मनुज निर्भय किया ।।
बालि-वध सुग्रीव को नित अभय का वरदान दे ।
संग वानर-भालु को ले बाँध सागर को दिया ।
हत दशानन कुल सहित सुर-मुनि-मनुज निर्भय किया ।।
जयति जय श्रीराम प्रभु की कीर्ति अद्भुत पावनी ।
अति मनोहर क्षेमकारी सर्वदा सुखदायिनी ।
दीनबन्धु दिनेश करुणा-पुंज सबका हित करें ।
हों सहज भवपार जो प्रभु नाम सुमिरन नित करें ।।
अति मनोहर क्षेमकारी सर्वदा सुखदायिनी ।
दीनबन्धु दिनेश करुणा-पुंज सबका हित करें ।
हों सहज भवपार जो प्रभु नाम सुमिरन नित करें ।।
राम सारे दुख हरें बस एक बार पुकार ले ।
भाव से या अनमने ही नाम तो इक बार ले ।
दुखहरण मंगलकरण प्रभु सर्वदा तत्पर रहें ।
भक्त वत्सल भाव-भूखे दौड़कर बाहें गहें ।।
भाव से या अनमने ही नाम तो इक बार ले ।
दुखहरण मंगलकरण प्रभु सर्वदा तत्पर रहें ।
भक्त वत्सल भाव-भूखे दौड़कर बाहें गहें ।।
क्या कभी सोचा कि हमने कर्म अपना भी किया ?
छाँव में जिसकी पले हम छाँव क्या उसको दिया ?
जो अयोध्या धाम प्रभु का पुण्य जन्मस्थान है ।
परम पावन भूमि है वह हम सभी का मान है ।।
छाँव में जिसकी पले हम छाँव क्या उसको दिया ?
जो अयोध्या धाम प्रभु का पुण्य जन्मस्थान है ।
परम पावन भूमि है वह हम सभी का मान है ।।
हो रहा है जो वहाँ पर क्या नहीं अन्याय है ?
समय से यदि यदि मिल न पाये न्याय क्या वह न्याय है ?
हो यही अंतिम लड़ाई आज यह संकल्प लें ।
देर अब होने न पाये कार्य प्रभु का कर चलें ।।
समय से यदि यदि मिल न पाये न्याय क्या वह न्याय है ?
हो यही अंतिम लड़ाई आज यह संकल्प लें ।
देर अब होने न पाये कार्य प्रभु का कर चलें ।।
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