अहा ! वह बचपन.
प्रतिदिन प्रात:
उषा जब द्वार के पट खोलती थी
नवोदित अरुण की
चंचल रश्मियाँ
घुस आती थीं मेरे कमरे में
एक छोटे से झरोखे से
भागती हुई, प्रकाश भरने
नवचेतना, नयी स्फूर्ति देने
मेरी
रात के अँधेरे से लड़कर
थककर सोयी हुई
नींद से बोझिल आँखों को.
तभी अम्मा
प्यार से सिर सहलाते, दुलारते
मीठे मधुर शब्दों में
कहतीं-
"उठ जा बेटा !
सुबह हो गयी है
देखो, सूरज भी निकल आया है
और मैं
कुनमुनाते हुए
करवट बदल लेता था
और सोने के लिए,
अचानक टूट जाने वाले
आधे-अधूरे सपनों को
पूरा करने के लिए,
क्योंकि सुना था कि
सुबह के सपने
अक्सर सच हो जाते हैं.
उम्र के साथ
अब सपने भी बड़े हो चले हैं.
नहीं समाते हैं अब
बंद आँखों में,
दे जाते हैं दर्द,
चुरा लेते हैं नींद, और
उन्हें देखने के लिए
अब आँखें बंद नहीं करनी पड़तीं
खुली रखनी पड़ती हैं, और
उन्हें पूरा करने के लिए
अब सोना नहीं,
जागना पड़ता है !
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