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जड़ों से जुड़ा अस्तित्व

कल रात को नींद नहीं आ रही थी। बहुत देर तक बिस्तर पर करवटें बदलने के पश्चात् बेडरूम से निकल आया और हॉल की खिड़की के पास खड़ा होकर गमलों में लगे पौधों को अनायास ही घूरने लगा। पिछली बार इन्हें इतने ध्यान से कब देखा था, याद नहीं। वह तो आज इनका सौभाग्य था कि मोबाइल बेडरूम में ही रह गया था और रात अधिक होने के कारण टीवी चालू नहीं किया, अन्यथा इन पर ध्यान देने के लिए फुर्सत कहाँ? सामान्यतः ये भी बूढ़े माँ-बाप की तरह सुबह-शाम पानी और महीने दो महीने में मिटटी-खाद पाकर पड़े रहते हैं किसी कोने में। तीव्र विकास के इस दौर में समय इतना मूल्यवान है कि इन अनप्रोडक्टिव चीज़ों के लिए टाइम कौन बर्बाद करे! जीने के लिए जरूरी खाना-पानी मिल रहा है, यही क्या कम है? व्यस्तता इतनी कि फेसबुक और व्हाट्सऐप के लिए भी समय नहीं। न तो फेसबुकिया मित्रों के पोस्ट पढ़ पा रहे हैं और न ही लाइक या कमेंट कर पा रहे हैं। दुष्परिणाम यह कि यदि कुछ पोस्ट करते हैं या फिर प्रोफाइल पिक्चर चेंज करते हैं तो अब पहले की तरह लाइक-कमेंट भी नहीं मिल पाते।  व्हाट्सऐप पर चैट करने के लिए समय नहीं मिल पाता और कुछ ख़ास मित्रगण फोन कर हालचाल पूछने में समय व्यर्थ करने से बाज नहीं आते, वह भी पूरे परिवार-खानदान, सगे-सम्बन्धियों सबका। क्या समय आ गया है? कौन इनको समझाए?

मुझे याद है कि बचपन में हम लोगों के पास बहुत समय रहा करता था। इतवार को या फिर त्यौहारों और गर्मी की छुट्टियों में जब समय ही समय रहता था, सुबह उठकर बासी रोटी-तरकारी, रोटी-दही या फिर जो भी उपलब्ध हो, खा-पीकर यार-दोस्तों को आवाज़ देते निकल लेते थे बागीचे की ओर मौसमी खेल खेलने। कभी हमें देर हो जाती तो दोस्त लोग बुला लेते। लेकिन यदि किसी दिन छोड़कर निकल जाते तो दुःख का पारावार न रहता। लगता जैसे हमसे बड़ा गरीब इस दुनिया में तो कोई है ही नहीं। और यदि कोई ख़ास मित्र मामा-बुआ के घर चला जाता तो पूछिए ही मत! लगता था कि उस साल की गर्मी की छुट्टी बर्बाद हो गयी है। एक राज की बात और जो सबको नहीं बता सकते - आजकल इन ख़ास दोस्तों को याद करने के लिए समय ही कहाँ मिलता है? हम तो फेसबुक-व्हाट्सऐप के मित्रों के लिए ही बमुश्किल थोड़ा-बहुत समय निकाल पाते हैं!

मौसमी फलों की तरह वे मौसमी खेल भी बड़े पौष्टिक और स्वास्थ्यवर्धक होते थे। आज हम एक पर एक फ्री का ऑफर देखकर टूट पड़ते हैं लेकिन वे तो पूरे के पूरे फ्री ही होते थे। फिर भी पता नहीं क्यों लोगों के जीवन से विलुप्त होते गए।

मैं भी कहाँ इन फालतू के पचड़ों में पड़ गया। समय मूल्यवान है, अतः मुद्दे की बात करके आगे बढ़ता हूँ। पहले लोगों के पास फालतू समय था इसलिए एकांतवास का भी मौका मिल जाता था और चिंतन-मनन भी कर लेते थे। टीवी-मोबाइल तो छोड़िये, उन्हें तो समाचार-पत्र भी नसीब नहीं था। तो सोचते भी क्या थे? चिंतन-मनन का विषय भी क्या था? वही ले-देकर परिवार-गाँव के बारे में सोचते थे, सगे-सम्बन्धियों के बारे में सोचते थे, मित्रों के बारे में सोचते थे, या फिर कुछ सामाजिक-धार्मिक विषयों पर चिंतन-मनन कर लेते थे। देश-दुनिया का न उन्हें पता था, न उसके बारे में सोच सकते थे। और आज? इस इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी के युग में ज्ञान-गंगा की ऐसी बाढ़ है कि लोगों को मिल रही सूचनाओं पर प्रतिक्रिया देने का भी समय नहीं है, चिंतन-मनन का फालतू समय कहाँ से मिलेगा? शहरों में लोग मुर्गी के दड़बे जैसे एक-दो कमरे के घर में रहते हैं अतः उनको एकांतवास और चिंतन-मनन का समय मिलना तो बहुत पहले बंद हो गया था, टीवी-मोबाइल के आने के बाद तो गाँव के लोगों के लिए भी यह दुर्लभ हो गया।

लेकिन कल रात को जब मैं आकर चुपचाप खिड़की पर खड़े होकर निर्विकार भाव से गमले में लगे पौधों को घूर रहा था तो लगभग दस-पंद्रह मिनट के बाद मेरे मस्तिष्क के चिंतन-मनन वाले भाग को लगा कि वर्षों बाद उसके अच्छे दिन आने वाले हैं और मुझे उसकी आवश्यकता पड़ने वाली है। सीजन की जुताई-बुवाई के बाद लम्बे समय से घर के किसी कोने में उपेक्षित पड़ी भोथरी, मुर्चाई हुई चकरकी -पतरकी कुदाल जैसे अगले सीजन के पहले लोहार की धधकती भट्ठी में तपकर और धार पाकर चमक उठती है, वैसे ही पूरे जोश के साथ कर्मपथ पर अग्रसर होने के लिए तैयार हो गया वह। बाघ, गौरैया, मोर, लोमड़ी, सियार आदि अनेक विलुप्तप्राय प्राणियों को सरकार या फिर पशु-प्रेमियों की सक्रियता के कारण जैसे अपने अस्तित्व पर आये खतरे से लड़ने का मौका मिला, उसे लगा कि मैंने उसे भी उसका अस्तित्व बचाने का एक अवसर दे दिया। फिर गमलों के पौधों को घूरते हुए जो विचार मन में आया अब उसकी बात कर लेते हैं।

मेरी खिड़की के गमले में श्रीमती जी की कृपा से कई परिचित-अपरिचित पौधों का पेट पल रहा है। इनमें नीम और पारिजात जैसे कुछ पौधे भी हैं जिनको मैंने बचपन से धरती की गोद में पलते-बढ़ते और फूलते-फलते देखा है। अब जब चिंतन-मनन शुरू हो गया तो कई तरह के विचार मन-मस्तिष्क में कौंधने लगे। अचानक सोचने लगा कि ये पौधे तो कई साल से इन गमलों में लगे हैं, लेकिन लम्बाई-चौड़ाई-मोटाई में कोई बहुत ज्यादा परिवर्तन नहीं दिखाई देता है।  एक समय के बाद ठहर से गए हों जैसे! यदि ये बाहर सीधे धरती की गोद में पल रहे होते तो... ? अपरिमित विकास हुआ होता इनका, कितने बड़े पेड़ बन चुके होते। कितने पक्षियों का बसेरा होते। कितने आते-जाते पथिकों को छाया देते। कितने भ्रमरों-मधुमक्खियों को अपने मधुरस से तृप्त करते। कितने सजातीय पौधों को जन्म दे चुके होते। इनकी अपनी शान होती, अपना अस्तित्व होता। क्या वही शान, वही अस्तित्व मेरी खिड़की के गमलों में आकर इनको मिला है? यदि हम लोग दस-पंद्रह दिनों के लिए बाहर चले जाएँ और इन्हें पानी न मिले तो... ? जब तक ये धरती की गोद में रहते हैं, किसी को इनकी देख-रेख करने की जरूरत नहीं पड़ती।  ये आत्मनिर्भर होते हैं प्रकृति से अपनी सारी आवश्यकताओं को स्वयं ही पूरा करने में पूर्णतया सक्षम होते हैं। किन्तु जब गमलों की सुंदरता के प्रति आकृष्ट होकर दूसरों के कृपापात्र बन जाते हैं तो जब तक सामने वाला मिटटी-खाद-पानी देता रहेगा तब तक जीवित रहेंगे, लेकिन जिस दिन बंद कर दिया, अस्तित्व का संकट आ जायेगा। और जीवित रहकर भी इनका क्या वैसा विकास हो पाता है जैसा धरती की गोद में होता है? क्या वह मान-सम्मान और यश मिलता है? कदापि नहीं, क्योंकि अपनी जमीन छोड़कर ये गमलों में आ बैठे हैं। अपनी जड़ों से उखड़ चुके हैं।

पौधे तो फिर भी पौधे हैं, वे स्वयं चलकर गमलों में नहीं आते। कौन जाने उनको गमलों में आकर कैद हो जाना और दूसरों की कृपा पर पलना पसंद भी है या नहीं? लेकिन हम तो मनुष्य हैं। इस पृथ्वी पर सबसे अधिक विकसित जीव, और उस पर भी विश्व की सर्वाधिक सम्मानित प्राचीनतम सभ्यता-संस्कृति की उपज जिसके आदि के बारे में कोई नहीं जानता। सब केवल कुछ खुदाई से मिली गिनी-चुनी वस्तुओं और स्वयंभू इतिहासकारों के स्वयंसिद्ध विश्लेषण के आधार पर अनुमान लगाने और इसका प्रादुर्भाव की खोज का दम्भ भरते हैं। फिर भी हम क्या कर रहे हैं? क्या हम स्वेच्छा से जाकर दूसरों के गमलों में अपने को कैद नहीं कर दे रहे हैं? क्या हम दूसरों की कृपा पर निर्भर नहीं होते जा रहे हैं? क्या हम अपने धर्म-समाज-संस्कृति-परंपरा रूपी जमीन को छोड़कर दूर नहीं जा रहे हैं? क्या हम अपनी जड़ों से कटते नहीं जा रहे हैं? कल्पना कीजिये कि पृथ्वी के सारे नीम के पौधों को यदि गमले में लगाकर कुछ दिनों के लिए छोड़ दिया जाय और उनको खाद-पानी न दिया जाय तो क्या उनका अस्तित्व रह जाएगा? नहीं न? ऐसे ही यदि हम अपने धर्म-समाज-संस्कृति-परंपरा को छोड़ दें और उनसे दूर हो जायँ तो क्या हमारे अस्तित्व पर संकट नहीं आ जाएगा? हम अगली पीढ़ी को दोष देते हैं किन्तु यह कभी नहीं देखते कि हमने स्वयं इनका कितना निर्वहन किया? क्या हमने अपने पूर्वजों की सीख को अपने जीवन में कोई स्थान दिया? क्या हमने अगली पीढ़ी के लिए एक सही उदाहरण प्रस्तुत किया? क्या हमने उनका सही मार्गदर्शन किया? हमें सोचने की आवश्यकता है।

कल मेरे मस्तिष्क का चिंतन-मनन वाला भाग मौका पाकर ऐक्टिव हो गया था तो मैंने इतना लेक्चर दे दिया। हो सकता है कि कल फिर मैं बाकी चीजों में इतना व्यस्त हो जाऊँ कि चिंतन-मनन तो दूर यह भी भूल जाऊँ कि इस मुद्दे पर मैंने ऐसा कुछ लिखा भी था। लेकिन यदि मेरे आज के इस क्षणिक आवेग वाले लेख से किसी का मन-मस्तिष्क पल भर के लिए चिंतन-मनन की ओर चला जाय तो वही मेरे इस अनप्रोडक्टिव समय का प्रोडक्ट होगा।

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