गुलों की आरजू की थी मिले काँटे नसीब से।
चली जब इश्क की हवा गुज़र गयी करीब से॥
रफीकों की तरफ हम आस लिए देखते रहे,
दो बूँद प्यासे को मिली अपने रकीब से॥
अब क्या सुनाएँ दास्तान-ए-आशिकी अपनी,
वो वाकये थे ज़िंदगी के कुछ अजीब से॥
हम तो गए थे दर पे तेरे मौत माँगने,
वह कौन था जिसने बचा लिया सलीब से॥
है दौलत-ए-मोहब्बत अब हासिल अमीरों का,
क्यों कर नज़र मिलेगी कोई एक ग़रीब से॥
नाकाबिल-ए-ज़िंदगी को ज़िंदगी मिली,
एक बदनसीब मिल गया एक बदनसीब से॥
चली जब इश्क की हवा गुज़र गयी करीब से॥
रफीकों की तरफ हम आस लिए देखते रहे,
दो बूँद प्यासे को मिली अपने रकीब से॥
अब क्या सुनाएँ दास्तान-ए-आशिकी अपनी,
वो वाकये थे ज़िंदगी के कुछ अजीब से॥
हम तो गए थे दर पे तेरे मौत माँगने,
वह कौन था जिसने बचा लिया सलीब से॥
है दौलत-ए-मोहब्बत अब हासिल अमीरों का,
क्यों कर नज़र मिलेगी कोई एक ग़रीब से॥
नाकाबिल-ए-ज़िंदगी को ज़िंदगी मिली,
एक बदनसीब मिल गया एक बदनसीब से॥
है दौलत-ए-मोहब्बत अब हासिल अमीरों का,
जवाब देंहटाएंक्यों कर नज़र मिलेगी कोई एक ग़रीब से॥....bahut umda
"मिले न फूल तो काँटों से दोस्ती कर ली..बस इस तरह से बसर हमने ज़िन्दगी कर ली"
जवाब देंहटाएंधन्यवाद चेतन भाई/बबन भाई!
जवाब देंहटाएं