चलो दर्द-ए-दिल को बढ़ाते जाएँ।
हदों की हर लकीरों को मिटाते जाएँ॥
ग़म-ए-फ़ुरकत में हमराह की जरूरत होगी,
याद-ए-माज़ी के चरागों को जलाते जाएँ॥
तनहा-तनहा हैं दिन-रात और शाम-ओ-सहर,
कोई तरकीब कर इनको मिलाते जाएँ॥
दूरियाँ दिलों की खुद-ब-खुद पट जायेंगी,
सफर में हर शख्स को गले से लगाते जाएँ॥
रोशनी हर सिम्त नज़र आएगी मोहसिन मेरे,
चराग़-ए-तालीम हर दर पर जलाते जाएँ॥
हदों की हर लकीरों को मिटाते जाएँ॥
ग़म-ए-फ़ुरकत में हमराह की जरूरत होगी,
याद-ए-माज़ी के चरागों को जलाते जाएँ॥
तनहा-तनहा हैं दिन-रात और शाम-ओ-सहर,
कोई तरकीब कर इनको मिलाते जाएँ॥
दूरियाँ दिलों की खुद-ब-खुद पट जायेंगी,
सफर में हर शख्स को गले से लगाते जाएँ॥
रोशनी हर सिम्त नज़र आएगी मोहसिन मेरे,
चराग़-ए-तालीम हर दर पर जलाते जाएँ॥
बहुत सुंदर ...आपकी उम्दा रचना
जवाब देंहटाएंधन्यवाद बबन भाई, आप लोगों की टिप्पणियां हमेशा ऊर्जादायक होती हैं.
जवाब देंहटाएंwah, bahut achchi poem hai.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद रोहित जी!
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