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उत्सव

कल १५ अगस्त है - हमारा स्वाधीनता दिवस. भारतवर्ष के दो प्रमुख राष्ट्रीय त्यौहारों में से एक. हम सभी भारतवासियों के लिए एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण दिन. हम स्वतंत्र देश के स्वतंत्र नागरिक हैं - यह याद करके खुश होने, इतराने का दिन... सारी दुनिया में अपनी स्वतंत्रता का डंका बजने का दिन... स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों की शहादतों को याद करने का दिन... तिरंगे झंडे को फहराने का और राष्ट्रगीत गाने का दिन... राष्ट्रप्रेम से ओत-प्रोत भाषण देने, सुनने और राष्ट्रीयता के भावों से लबरेज गानों को बजाने और सुनाने का दिन... सरकार की उपलब्धियाँ (जिसमें से कुछ पिछले सालों से उधार ली जाती हैं, कुछ आने वाले सालों के लिए तैयार की जाती हैं) गिनाने का दिन... बड़े-बड़े वादे करने का दिन...इत्यादि...इत्यादि...

इतना बड़ा दिन! इतना बड़ा त्यौहार!! इतने सारे क्रिया-कलाप!!! ज़ाहिर है उत्सव भी बड़ा होगा. होगा क्या, होता ही है. स्वाधीनता दिवस और गणतंत्र दिवस ही तो सबसे बड़े राष्ट्रोत्सव हैं. इस दिन की चहल-पहल, लोगों का उत्साह आदि अपने चरम पर होते हैं. वैसे सब लोगों के उत्साह के अपने-अपने कारण होते हैं. इसीलिए अनेक होते हैं, सिर्फ एक ही नहीं होता (समझ रहे हैं न, आप तो समझदार हैं...).

स्वाधीनता दिवस और गणतंत्र दिवस के अलावा भी बहुत सारे उत्सव मनाए जाते हैं हमारे देश में. कुछ राष्ट्रीय स्तर पर, कुछ राज्य स्तर पर, कुछ जनपद स्तर पर, कुछ ग्राम्य स्तर पर, कुछ जाति के नाम पर, कुछ धर्म के नाम पर, कुछ भाषा के नाम पर, कुछ राज्य के नाम पर, कुछ क्षेत्र के नाम पर आदि (इंसानियत के नाम पर कुछ भी नहीं सुना है मैंने). क्रिया-कलाप के आधार पर इनको चुनावी उत्सव, धर्मोत्सव, क्रीड़ोत्सव आदि वर्गों में रखा जा सकता है. आपको शायद पता न हो (क्यों नहीं होगा, जब सारी दुनिया को पता है), दिल्ली में एक बहुत बड़े उत्सव की तैयारी जोर-शोर से चल रही है, जिसकी चर्चा हमारे गली-नुक्कड़ों से लेकर पूरी दुनिया में हो रही है.

उत्सवों के नाम पर एक बात याद आई. बचपन में हमने अपने गाँव-देहात में बहुत सारे छोटे-बड़े उत्सव देखे हैं. इनके कारण अलग-अलग होते थे, शरीक होने वालों की संख्या अलग-अलग होती थी, तैयारियाँ अलग-अलग तरीके से होती थीं, उद्देश्य अलग-अलग होते थे, खान-पान की व्यवस्था अलग-अलग होती थी. किन्तु, जो एक चीज़ सबमें सामान्य थी वह थी - कुत्तों की मौजूदगी.

ये कुत्ते भी बड़ी अजीब चीज़ होते हैं. आपके पड़ोस में रहने वाले भाई-बंधुओं को शायद पता न हो कि आपके घर कोई उत्सव होने वाला है, किन्तु गाँव के बाहर के (शायद आस-पास के गाँवों के भी) कुत्तों को पता चल जाता है. फिर क्या, काफी संवेदनशील जीव हैं ये. आते-जाते सारी तैयारी, सारी व्यवस्था और ख़ासकर सारी सामग्री पर पूरी संजीदगी से नज़र रखते हैं. मौका मिला नहीं कि मुँह मार लिया. उत्सव के दिन तक जिनको मौका नहीं मिला, वो जूठन पर ही हाथ साफ कर लेते हैं. चलो, जो ही हाथ सो ही साथ. इसी में एक-आध हरामी के पिल्ले होते हैं जो भण्डारे में घुसकर सारी भोजन-सामग्री का सत्यानाश कर देते हैं और आयोजन को पूरी तरह से चौपट कर देते हैं. परिणामस्वरूप, जग-हँसाई और सारी दुनिया में थू-थू. अरे भाई, अब इतने बड़े आयोजन की तैयारी एक दिन में तो नहीं की जा सकती है न.

आयोजन के चौपट होने में सिर्फ़ कुत्ते ही जिम्मेदार नहीं होते, प्रबन्ध-तन्त्र भी होता है. बल्कि ये कहें कि प्रबन्ध-तन्त्र की जिम्मेदारी सर्वोपरि होती है, तो गलत नहीं होगा. अब यह सबको मालूम है कि जहाँ उत्सव होगा, वहाँ कुत्ते तो आयेंगे ही. और आयोजन को कुत्तों के द्वारा बर्बाद होने से बचाने कि जिम्मेदारी प्रबन्ध-तन्त्र की ही होती है. तो स्वाभाविक है कि आयोजन की बर्बादी का प्रमुख जिम्मेदार प्रबन्ध-तन्त्र ही होगा.

तो क्या ऐसे नाकारा प्रबन्ध-तन्त्र को बने रहने का हक़ है? क्या उसे उखाड़कर फेंक नहीं देना चाहिए? क्या इन कुत्तों को सलाखों के पीछे नहीं ढकेल देना चाहिए? क्या उनको मौत के घाट नहीं उतार देना चाहिए जो हमारे मान-सम्मान को सारी दुनिया में नीलाम कर रहे हैं?

ज़रूर करना चाहिए. लेकिन, हमारी भोली-भाली (बेवकूफ कहना अच्छा नहीं लगता) जनता इन कुत्तों के पीछे खड़ी रहती है और उनके आवभगत में तल्लीन रहती है. जाति-धर्म-भाषा-क्षेत्र के बन्धनों से मुक्त होना ही नहीं चाहती.

अरे भाई, अब तो जागो... इस स्वतंत्रता दिवस के मौके पर कुछ ऐसा करने का संकल्प लो कि हमारी आने वाली पीढ़ी का कल्याण हो.

जय हिंद, जय भारत.

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