गुरुवार, 18 सितंबर 2025

यूँ अकारण कुछ न था

रुदित उनका दूर जाना, यूँ अकारण कुछ न था।
और मेरा लौट आना, यूँ अकारण कुछ न था।

द्रोहियों की भीड़ से जब फौज पर पत्थर चले,
भीड़ पर गोली चलाना, यूँ अकारण कुछ न था।

हर खुशी हर पल निछावर बाल-बच्चों पर किया,
मातु-पितु का रूठ जाना, यूँ अकारण कुछ न था।

खेत में दिन-रात खटकर जिंदगी जिनकी कटी,
गाँव उनका छोड़ जाना, यूँ अकारण कुछ न था।

वही आँगन, चार भाई जन्मकर पल-बढ़ गए,
भीत उस आँगन उठाना, यूँ अकारण कुछ न था।

आज यदि घर से निकल हिंदू सड़क पर आ गए,
धैर्य उनका टूट जाना, यूँ अकारण कुछ न था।

जो कभी आँखें मिलाकर बात भी करता न था,
आज उसका घर बुलाना, यूँ अकारण कुछ न था।

जन्मदात्री से अधिक वात्सल्य जिसका राम पर,
ठान हठ वन को पठाना, यूँ अकारण कुछ न था।

जन्म भर जो धर्म को बस गालियाँ देता रहा,
मंदिरों में सिर नवाना, यूँ अकारण कुछ न था।

- राजेश मिश्र 

मंगलवार, 16 सितंबर 2025

अनकही ही रह गईं

मौन कितनी ही वफाएँ अनकही ही रह गईं।
फलित होकर भी दुआएँ अनकही ही रह गईं।

तूलिका अरु कैनवस मेरे लिए हासिल न था,
अतः मेरी कल्पनाएँ अनकही ही रह गईं।

कहूँ तुमसे मैं कभी साहस जुटा पाया नहीं,
मनस् पलती कामनाएँ अनकही ही रह गईं। 

हम सुरा में, सुंदरी में रम गए कुछ इस तरह,
साधकों की साधनाएँ अनकही ही रह गईं। 

तर्क का, कुविचार का व्यभिचार अद्भुत देखकर,
स्वस्थ उनकी धारणाएँ अनकही ही रह गईं। 

आज जन-दरबार का फिर था हमें न्यौता मिला,
पर हमारी समस्याएँ अनकही ही रह गईं। 

सहिष्णुता व अहिंसा के व्यूह में हम यूँ फँसे,
कुछ हमारी आस्थाएँ अनकही ही रह गईं।

भूख से संघर्ष करते रह गए हम उम्र भर,
हृदय की मृदु भावनाएँ अनकही ही रह गईं। 

जब कभी लिखने चले यादों में ऐसे खो गए, 
तुम्हारी कमसिन अदाएँ अनकही ही रह गईं।

सोचते थे तुम कहीं रुसवा न हो जाओ प्रिये,
जिंदगी की कुछ कथाएँ अनकही ही रह गईं।

- राजेश मिश्र

सोमवार, 15 सितंबर 2025

इसी देह में रहती तुम भी

देखो, बस मुझको मत देखो, 
खुद को भी देखो मुझमें ही। 
इसी देह में मैं भी रहता,
इसी देह में रहती तुम भी।।

तुमसे पहले एकाकी था 
सब सूना-सूना लगता था।
भरी सभा हो, भरा मंच हो
पर ऊना-ऊना लगता था।

एकाकीपन गया तुम्हीं से 
तुमसे पूरा खालीपन भी।
इसी देह में मैं भी रहता,
इसी देह में रहती तुम भी।।१।।

सुंदर सुष्ठु सुडौल देह यह 
सप्त-धातु से परिपूरित थी।
हृष्ट-पुष्ट तन दृष्टि सभी की 
अंदर क्या है, कब परिचित थी? 

तुमको पा चंचल मन नाचे
मधुर-मधुर गाए धड़कन भी।
इसी देह में मैं भी रहता,
इसी देह में रहती तुम भी।।२।।

ये तन केवल साधन ही थे 
आज मिले, कल फिर बिछड़ेंगे।
जनम-जनम का साथ हमारा
कोई तन ले आन मिलेंगे।

भाव हमारे यही रहेंगे
और यही होंगे चेतन भी।
इसी देह में मैं भी रहता,
इसी देह में रहती तुम भी।।३।।

ऊना = अपूर्ण, अधूरा।

- राजेश मिश्र

रविवार, 14 सितंबर 2025

एक 'कबी'जी की व्यथा

आज सुबह जैसे ही फेसबुक खोला, एक महिला का मित्रता अनुरोध दिखा। प्रोफाइल लॉक थी, फोटो थोड़ा छोटा था और आँखें कुछ कमजोर होने के कारण चेहरा साफ नहीं दिख रहा था। फिर भी इतना अंदाज तो लग ही गया कि कोई उम्रदराज महिला हैं, न कि शिकारी फेसबुक बाला। अतः मित्रता अनुरोध स्वीकार कर लिया। 

फोटो को बड़ा करके देखा तो उजड़े बालों वाली, लटके गालों वाली, शुष्क-वक्षा, लंबोदरी देवीजी कुछ जानी-पहचानी सी लगीं। बहुत देर तक सोचता रहा, परन्तु याद नहीं आया कि कहाँ देखा है। अतः दैनिक कार्यों में व्यस्त हो गया। किंतु देवीजी ने पीछा नहीं छोड़ा। उनका चेहरा रह-रहकर विचारों के द्वार पर थपकी देता रहा और मुझसे पूछता रहा—"पहचान कौन?"

छुट्टी का दिन था, अतः थोड़ी देर बाद फिर मोबाइल लेकर बैठ गया। फोटो को एक बार फिर बड़ा करके देखा और अचानक एक घटना मस्तिष्क में कौंध गई।

कल की ही बात थी। एक मित्र के यहाँ जुटान थी। एक 'कबी' जी भी आए थे। भाई लोग जुटे थे तो पकौड़ी-चाय के साथ हँसी-ठिठोली भी हो रही थी और ठहाके भी गूँज रहे थे। लेकिन 'कबी' जी अनमने-से, दु:ख की चादर ओढ़े, एक कोने में अछूत से बैठे थे, जैसे कोरोना के संभावित मरीज हों। पकौड़ी और चाय को भी उन्होंने मना कर दिया था। उनकी यह दशा मुझे खटकने लगी। जब रहा नहीं गया तो मैं उनका स्वास्थ्य परीक्षण करने उनके पास पहुँच गया। 

मैंने पूछा—"कैसे हैं भाई साहब? मुँह कुछ उतरा-उतरा दिख रहा है। स्वास्थ्य तो ठीक है न?"

उन्होंने कहा—"अरे! नहीं, स्वास्थ्य बिल्कुल ठीक है।"

मैं: "घर पर कोई समस्या है क्या? भाभी-बच्चे सब लोग ठीक-ठाक हैं न?"

'कबी' जी: "हाँ-हाँ, सब लोग ठीक-ठाक हैं। कोई समस्या नहीं है।"

मैं: "तो फिर आप इतना लम्बा सा मुँह लटकाए क्यों बैठे हैं?"

'कबी' जी ने‌ वहाँ बैठे समाज की तरफ दृष्टि डालते हुए कहा—"छोड़िए जाने दीजिए, यहाँ इस विषय पर बात करना ठीक नहीं होगा।"

उनके मंतव्य को समझते हुए मैंने कहा—"चिंता मत कीजिए। हमारी बातचीत की ओर किसी का ध्यान नहीं है। बताइए क्या बात है?"

थोड़ी देर की चुप्पी के बाद 'कबी' जी ने कहा—"अरे यार! क्या बताएँ। आजकल पोस्ट पर लाइक-कमेंट आना बहुत कम हो गए हैं। कितना भी अच्छा लिखो, दोहरे अंकों तक भी नहीं पहुँचते हैं।"

बात तो सही थी। उनकी पीड़ा का कुछ-कुछ अनुभव तो मुझे हुआ, लेकिन मैं उसे पूरी तरह नहीं समझ सकता था क्योंकि मेरे लाइक-कमेंट दोहरे अंकों में पहुँचते हैं। मेरे प्रिय चिरंजीवी अनुज राकेश मिश्र 'सरयूपारीण' तो तिहरे अंको का आनंद ले रहे हैं। फिर भी उनके दर्द को साझा करते हुए मैंने बात आगे बढ़ाई और कहा—

"कृपा कहीं अटकी हुई है। कुछ दिन का अवकाश ले लीजिए, चिंतन-मनन कीजिए और नए कलेवर में नया विषय लेकर आइए। खोया यश अवश्य प्राप्त होगा।"

मेरा सुझाव उन्हें रास नहीं आया। 'वृद्धिरेचि' की भाँति उनकी अधीरता बढ़ गई और बोले—"अवकाश ले लूँ? आप जानते हैं न कि एक बार पोस्ट करना बंद कर दिया तो जो भी रहे-सहे प्रशंसक हैं, वे भी नहीं बचेंगे। अच्छा मजाक कर लेते हैं आप।"

मैंने कहा—"तो फिर अलग-अलग ग्रुप में पोस्ट कीजिए। हो सकता है कुछ प्रशंसक बढ़ जाएँ।"

वह बोले—"वह भी करके देख लिया, कोई लाभ नहीं।"

मैंने कहा—"जो आपके पुराने प्रशंसक रहे हैं, उनको टैग करके देखिए।"

उन्होंने कहा—"कोशिश की थी। कुछ दिन तक तो सकारात्मक प्रतिक्रिया मिली थी। फिर उन्होंने उपेक्षा करना प्रारंभ कर दिया।"

मैंने कहा—"वैसे आपकी मित्रता सूची 5000 की ऊपरी सीमा तक पहुँच गई है। क्यों न उन लोगों को अपने मित्रता सूची से हटा दीजिए जो प्रतिक्रिया नहीं देते हैं, और नए लोगों को आने दीजिए। इससे संभवत: कुछ लाभ हो।"

उन्होंने कहा—"वह भी करके देख लिया। कुछ नहीं हुआ।"

जैसे-जैसे बातचीत आगे बढ़ती जा रही थी, वह और भी अधीर होते जा रहे थे। धैर्य तो मेरा भी टूटने लगा था। अतः थोड़ा सा तंज कसते हुए मैंने कहा—"फिर तो मुझे इस जीवन में कोई उपाय नहीं सूझ रहा। अब प्रभु से प्रार्थना करिए कि अगले जन्म में आपको महिला बनाएँ, क्योंकि वे यदि अपना फोटो डालकर केवल इतना भी लिख देती हैं कि "कैसी लग रही हूँ", तो भी चार अंको का लाइक-कमेंट एंजॉय करती हैं।" और कहने के बाद थोड़ा सा मुस्कुरा दिया।

वह कुछ देर मेरी ओर टकटकी लगाए देखते रहे, फिर बिना कुछ कहे झटके से उठे और चल दिए। मित्रों में से कुछ मुझसे अप्रसन्न हो गए, तो कुछ ने सांत्वना देते हुए कहा—"कोई बात नहीं भाई! सब ठीक हो जाएगा।" शाम को मैं भारी मन से घर वापस आया और मन-ही-मन उनसे कई बार क्षमा भी माँगी‌।

लेकिन मुझे क्या पता था कि उनका पुनर्जन्म इतनी जल्दी हो जाएगा, और वह भी उसी शरीर और उसी प्रौढ़वस्था के साथ। 24 घंटे के भीतर हुए उनके इस पुनर्जन्म से मैं हत्प्रभ था और अब भी हूँ।

- राजेश मिश्र

हिंदी हिंदू-सी उदार है

हिंदी हिंदू-सी उदार है।

सरल सुलभ सबकी शिकार है।


हर आगंतुक को अपनाया,

पर देखो दुश्मन हजार हैं।


कभी कहीं घुसपैठ से पीड़ित,

राजनीति की कहीं मार है।


कन्वर्जन के कुटने करते,

शब्दों पर प्रतिदिन प्रहार हैं।


सब सहकर भी हँसती रहती,

सहनशक्ति इसकी अपार है।


स्वतंत्रता की सेनानी यह,

इसके तेवर धारदार हैं।


जिसने पहला शब्द सिखाया,

मस्तक नत यह बार-बार है।


संस्कृत के नातिन की नातिन,

चंदन भारत के लिलार है।


- राजेश मिश्र

शनिवार, 13 सितंबर 2025

चले जाना

चन्द दिन और रुक जाओ, चले जाना।
जरा मन और बहलाओ, चले जाना।।

तुम्हें देखा नहीं अब तक
तुम्हें जाना नहीं अब तक
जरा मैं देख लूँ तुमको
जरा मैं जान लूँ तुमको

निकट कुछ और आ जाओ, चले जाना।
जरा मन और बहलाओ, चले जाना।।

नयन थे राह पर अटके
श्रवण चौकस, कहीं खटके
कोकिला कूक उठती थी
हृदय में हूक उठती थी

हृदय मेरे उतर जाओ, चले जाना। 
जरा मन और बहलाओ, चले जाना।।

जले दिन-रात बरसों से
मिले हो बाद बरसों के
अगर तुम आज जाओगे
कहो, कब लौट आओगे

वजह जीने की दे जाओ, चले जाना।
जरा मन और बहलाओ, चले जाना।।

- राजेश मिश्र 

शुक्रवार, 12 सितंबर 2025

अभी कहानी बाकी है

दृग में पानी बाकी है।
अभी कहानी बाकी है।

साँस शिशिर की टूट रही,
कोंपल आनी बाकी है।

हार अभी से मत मानो,
अभी जवानी बाकी है।

निर्णय अभी अधर में है,
खींचातानी बाकी है।

जीते नहीं अभी भी तुम,
इक्का-रानी बाकी है।

बहुतेरी बातें बदलीं,
पर मनमानी बाकी है।

रिश्ता अपना जीवित है,
अभी रवानी बाकी है।

अब भी वह रहती मुझमें,
याद सुहानी बाकी है।

जिससे उस पर दिल आया
वह नादानी बाकी है।

- राजेश मिश्र

बुधवार, 10 सितंबर 2025

ललकार

वे जो घात लगाये बैठे
सतत लार टपकाये बैठे 
श्रीलंकाई, बांग्लादेशी
नेपाली घटनाओं जैसी 
घटना कोई भारत में हो 
देश हमारा गारत में हो
भ्रम उनका हम दूर करेंगे
दर्प स्वप्न सब चूर करेंगे।।१।।

हाँ कुछ सदियों पराधीन थे
बँटे हुए थे, दीन-हीन थे
लेकिन वह पल बदल गया है
भारतवासी सँभल गया है
अब कोई आक्रांता आये
इस धरती पर आँख उठाये
भ्रम उनका हम दूर करेंगे
दर्प स्वप्न सब चूर करेंगे।।२।।

अरब फारसी यूनानी हो
हूण मुगल या क्रिस्तानी हो 
डीप स्टेट, दलाल हों उसके
बार-मेड या लाल हों उसके
अरि पूरब पश्चिम उत्तर में
आस्तीन के साँप जो घर में
भ्रम उनका हम दूर करेंगे
दर्प स्वप्न सब चूर करेंगे।।३।।

श्रेष्ठ हमारे महाबली थे
लेकिन दुश्मन क्रूर छली थे
ये शरणागत के रक्षक थे
वे अपनों के ही भक्षक थे
मानवता को नृशंसता से 
जिनने कुचला बर्बरता से
भ्रम उनका हम दूर करेंगे
दर्प स्वप्न सब चूर करेंगे।।४।।

भारत जिनको खटक रहा है
गले सनातन अटक रहा है 
या तो अपनी सोच बदल लें
अब भभूत माथे पर मल लें
छोड़ें टोपी, क्रॉस उतारें
केसरिया बाना तन धारें
या भ्रम उनका दूर करेंगे
दर्प स्वप्न सब चूर करेंगे।।५।।

- राजेश मिश्र

मंगलवार, 9 सितंबर 2025

जागो सनातनियों

उदयाचल से सूरज निकला
घोर अँधेरा भाग रहा है।
सनातनी वीरों! तुम सोए
देखो दुश्मन जाग रहा है।।

वर्षों बाद समय बदला है 
तुम उन्नीस से बीस हुए।
रही सैकड़ों साल गुलामी 
तब फिर सत्ताधीश हुए। 

सतत सतर्क रहो तुमसे यह
वचन राष्ट्र अब माँग रहा है।
सनातनी वीरों! तुम सोए
देखो दुश्मन जाग रहा है।।१।।

हाँ वे अब कमजोर हुए हैं
लेकिन हार नहीं मानी है।
चुप हैं, पर मौका मिलते ही
हमला करने की ठानी है।

घाती हैं, वे घात करेंगे
उनका यह अंदाज रहा है।
सनातनी वीरों! तुम सोए
देखो दुश्मन जाग रहा है।।२।।

काश्मीर में सिद्ध किया फिर
जड़ उन्मादी अंधे हैं वे।
देश-राष्ट्र का अर्थ न कोई
बस इस्लामी बंदे हैं वे।

लाल चौक रिपु रुधिर से धो दो 
जो मस्तक का दाग रहा है।
सनातनी वीरों! तुम सोए
देखो दुश्मन जाग रहा है।।३।।

- राजेश मिश्र 

सोमवार, 8 सितंबर 2025

मोहन! मुरली मधुर बजाना

मोहन! मुरली मधुर बजाना।

मन प्यासा है, अभिलाषा है,
मीठी तान सुनाना।
मोहन! मुरली मधुर बजाना।।

जिस मुरली-धुन राधा रीझी
गोपिन सुध-बुध खोईं।
धेनु स्रवैं पय बिनु बछड़ा के 
तान सुनाओ सोई।

श्रवण हमारे, विकल मुरारे!
इनका क्लेश नसाना।
मोहन! मुरली मधुर बजाना।।

नष्ट अधर्म हुआ जिस धुन से
धर्म-ध्वजा फहराई।
भरी सभा में कौतुक करके 
अनुजा-लाज बचाई।

हे अविनाशी! पाप-विनाशी 
छेड़ो वही तराना।
मोहन! मुरली मधुर बजाना।।

जिस धुन उपजी पावन गीता
अर्जुन मोह मिटाया।
पढ़त-सुनत जन-मन दुखभंजक
मुक्ति-मार्ग बतलाया।

हे यदुनंदन! असुरनिकंदन!
नेह-मेह बरसाना।
मोहन! मुरली मधुर बजाना।।

- राजेश मिश्र

रविवार, 7 सितंबर 2025

तुम मेरी पहली प्रीत बने

जग की सारी खुशियाँ पा ली
तुम जो मेरे मीत बने।
मानो, मत मानो पर तुम ही 
मेरी पहली प्रीत बने।।

प्रथम मिलन पर आंखें अपनी 
ज्यों ही दो से घार हुईं।
मन-वीणा के तारों में मृदु 
मद्धिम सी झनकार हुई।।
स्वर, लय, ताल उठे हो चेतन 
और नए संगीत बने।
मानो, मत मानो पर तुम ही 
मेरी पहली प्रीत बने।।१।।

धीरे-धीरे मौन नैन का 
मुखरित वाणी तक आया।
मधुर-मधुर शब्दों में ढलकर
कानों से जा टकराया।
छंदों की गोदी जा बैठा
अरु जीवन के गीत बने।
मानो, मत मानो पर तुम ही 
मेरी पहली प्रीत बने।।२।।

पाना और गँवाना, जग में
यही सदा व्यापार रहा।
सुखद मिलन, दुखप्रद बिछुड़न ही
प्रेम-नदी आधार रहा।
हो संयोग-वियोग सभी में
त्याग प्रेम की रीत बने। 
मानो, मत मानो पर तुम ही 
मेरी पहली प्रीत बने।।३।।

- राजेश मिश्र

शनिवार, 6 सितंबर 2025

न जाने क्यों

न जाने क्यों!
देखकर तुमको पिघलता है मेरा मन,
ज्यों हिमालय पिघलता हो,
छू सुनहरी रश्मियों को।।

भाव-जल पूरित तुम्हारे युगल-लोचन,
लजा देते हैं अपरिमित उदन्वत् को।
जलधि जल खारा, दृगों के भाव मधु सम,
सिक्त करते, तृप्त करते, तप्त हृत को।

न जाने क्यों!
देखकर तुमको उमगता है मेरा मन,
तृषित सागर उमगता ज्यों 
अंक भरकर निर्झरी को।।

सघन घन जैसे तुम्हारे कृष्ण कुन्तल,
खेलते हैं चन्द्रमुख से नत निरंतर।
तन अलौकिक सत्त्वगुण की मूर्ति कोई
आ गई हो उतरकर देवी धरा पर। 

न जाने क्यों!
देखकर तुमको विनत होता मेरा मन,
पृथुल पुष्कर विनत हो ज्यों 
चूमकर विश्वम्भरा को।।

उदन्वत् = समुद्र 
पृथुल = विशाल 
पुष्कर = आकाश
विश्वम्भरा = पृथ्वी

- राजेश मिश्र 

शुक्रवार, 5 सितंबर 2025

गुरु-वंदना

गुरु वह दीपक जो जलकर भी 
देता है उजियारा।
सद्गुरु-कृपा काट देती है 
जड़ भव-बंधन सारा।।

उदित जहाँ से बहती झर-झर
सतत ज्ञान की धारा।
तरणी बनकर भवसागर से 
जिसने पर उतारा।।

संस्कार की गंगा-यमुना 
जिससे नित बहती है।
जिसकी छाया में मानवता 
नित पलती रहती है।।
 
जिसका सुमिरन, जिसका चिंतन 
कठिन क्लेश है हरता।
उन गुरु-चरणों में नत तन-मन
जीवन जहाँ सँवरता।

- राजेश मिश्र

वीर बाल दिवस

भारत सतत समृद्ध समर्पित राष्ट्रभक्त दीवानों से। सत्य सनातन सदा सुरक्षित वीरों के बलिदानों से।। इस्लामी आँधी के आगे झुके नहीं वे तने रहे। नमन...