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अहमद चाचा

लन्दन के हीथ्रो एअरपोर्ट से जैसे ही विमान ने उड़ान भरी, श्याम का दिल बल्लियों उछलने लगा. बचपन की स्मृतियाँ एक-एक कर मानस पटल पर उभरने लगीं और जैसे-जैसे विमान आसमान की ऊँचाई की ओर बढ़ता गया, वह आस-पास के वातावरण से बेसुध अतीत में मग्न होता चला गया. माँ की ममता, पिताजी का प्यार, मित्रों के साथ मिलकर धमाचौकड़ी करना, गाँव के खेल, नदी का रेता, हरे-भरे खेत, अनाजों से भरे खलिहान और वहां कार्यरत लोगों की अथक उमंग, तीज त्यौहार की चहल-पहल आदि ह्रदय को रससिक्त करते गए.

गाँव के खेलों की बात ही कुछ और है. चिकई, कबड्डी, कूद, कुश्ती, गिल्ली-डंडा, लुका-छिपी, ओल्हा-पाती, कनईल के बीज से गोटी खेलना, कपड़े से बनी हुई गेंद से एक-दूसरे को दौड़ा कर मारना आदि-आदि. मनोरंजन से भरपूर ये स्वास्थ्यप्रद खेल शारीरिक और मानसिक उन्नति तो प्रदान करते ही हैं, इनमें एक पैसे का खर्च भी नहीं होता है. अतः धर्म, जाति, सामाजिक-आर्थिक अवस्था से निरपेक्ष सबके बच्चे सामान रूप से इन्हें खेल सकते हैं.

इन सबसे अलग एक सबसे प्यारी चीज़ थी जिसके लिए वह वर्षों व्याकुल रहा, वह थे अहमद चाचा. हिन्दुओं के इस गाँव में एक अहमद चाचा का ही परिवार मुस्लिम समुदाय से था. लेकिन उनका कहना था कि आज पचपन वर्ष की उम्र हो जाने तक भी उन्हें इस बात का कभी अहसास भी नहीं हुआ था. होली, दीवाली, ईद, बकरीद सबके साथ ही मनाते थे. पाँच वक्त के नमाज़ी थे, किन्तु गाँव में कहीं भी भजन-कीर्तन हो, उनकी उपस्थिति अनिवार्य रहती थी.

अहमद चाचा के दादाजी श्याम के गाँव से दो कोस दूर स्थित शाहपुर नामक गाँव के बाशिंदे थे. उनकी तीन बीवियों से सात पुत्र तथा तीन पुत्रियाँ थीं. अहमद चाचा के वालिद हुसैन मियाँ उनकी सबसे छोटी बीवी की पहली संतान थे. उन्होंने परिवार-समाज सबसे बगावत कर गाँव के ही एक दलित युवती से शादी कर ली और परिणामतः  घर से निकाल दिए गए. कहीं शरण नहीं मिली. श्याम के दादाजी को पता चला तो उन्होंने दो बीघे ज़मीन, घर बनाने के लिए थोड़ी सी जगह और तीन-चार पेड़ का एक छोटा सा बागीचा देकर उन्हें अपने गाँव में ही बसा दिया. हालाँकि कुछ लोगों ने विरोध अवश्य किया था, किन्तु धीरे-धीरे सब शान्त हो गया और हुसैन मियाँ ने अपनी व्यवहारकुशलता से सबके दिलों में जगह बना ली.

अहमद चाचा उनकी एकमात्र सन्तान थे और बचपन से ही अपने वालिद के साथ श्याम के खेत-खलिहान का कारोबार देखते थे. श्याम के पिताजी हर एक कार्य में उनसे विचार-विमर्श अवश्य करते थे. श्याम का बचपना उनके बाँहों के झूले में ही व्यतीत हुआ था. वह जैसे ही उन्हें देखता था, दौड़कर उनकी गोदी में चढ़ जाता था और दोनों हाथ से उनकी दाढ़ी सहलाने लगता था. कभी-कभी वह अपनी दाढ़ी प्यार से श्याम के चेहरे पर रगड़ देते थे और वह चिल्ला उठता था.

अहमद चाचा के कुल पाँच औलादें हुईं जिनमें से तीन पुत्रियाँ और दो पुत्र थे. पुत्रियों की शादी हो गई और वे अपने-अपने घर चली गयीं. छोटा लड़का दसवीं में पढ़ रहा था, जब साँप के काटने से उसकी मृत्यु हो गयी. अब परिवार में अहमद चाचा के अलावा उनका बड़ा लड़का असलम, उसकी बीवी तथा दो बच्चे थे. असलम ने श्याम के पिताजी की सहायता से पास के बाज़ार में फर्नीचर की एक दुकान खोल ली थी, जो अब काफी अच्छी चलने लगी थी.

दिल्ली के इंदिरा गाँधी हवाई अड्डे पर उतरने के पश्चात् ट्रेन पकड़कर श्याम दूसरे दिन अपने गाँव पहुँचा. पिताजी पास के गाँव में एक मित्र की लड़की की शादी में गए हुए थे, इसलिए कार लेकर ड्राईवर अकेला ही स्टेशन पर आया हुआ था. घर पहुँचते ही अम्मा उसे गले लगाकर फफक-फफककर रो पड़ीं. श्याम की आँखों से भी आँसुओं की धारा बह चली. कितना तड़पा था वह इस प्यार और दुलार के लिए!

कुछ देर के पश्चात् जब बातचीत का सिलसिला थमा और वह नहा-धोकर, चाय पीकर घर से निकलने लगा, तो अम्मा ने पूछा - "अरे! आते ही खाना-पीना खाए बिना किधर को निकल पड़े? अभी खाना खाकर आराम कर लो, फिर शाम को सबसे मिलना."

श्याम ने कहा - "अभी आधे घंटे में अहमद चाचा से मिलकर आ रहा हूँ, फिर खाना खाऊंगा."

अम्मा का चेहरा अचानक सफ़ेद पड़ गया. श्याम किसी अनहोनी की आशंका से दहल गया. अम्मा के चेहरे को ध्यान से देखते हुए पूछा - "क्या हुआ? सब ठीक तो है न? अहमद चाचा मुझे लेने के लिए स्टेशन भी नहीं गए थे और यहाँ भी कहीं नहीं दिख रहे हैं. उनकी तबियत तो ठीक हैं न?"

अम्मा के मुँह से बोल नहीं फूटे. उनकी आँखों से अविरल अश्रुधारा बहने लगी. श्याम के ह्रदय की धड़कन बढ़ गयी, हाथ-पाँव काँपने लगे. मन कड़ा करते हुए उसने फिर पूछा - "अम्मा, तुम बोलती क्यों नहीं? क्या हुआ अहमद चाचा को?"

अम्मा ने रोते हुए धीरे से कहा - "अहमद मियाँ अब नहीं रहे."

श्याम के पैरों तले से जैसे ज़मीन खिसक गयी हो. उसके ह्रदय पर वज्राघात सा हुआ. वह धम्म से ज़मीन पर बैठ गया. निश्चल, निर्विकार, स्तब्ध सामने की दीवार को घूरता रहा. अम्मा के बार-बार झकझोरने और बुलाने पर उसकी ख़ामोशी टूटी. फिर रोते हुए पूछा - "कैसे हुआ?"

अम्मा ने बतलाया - "तुम्हारे लन्दन जाने के कुछ दिनों पश्चात् ही असलम और उसकी बीवी से उनका झगड़ा शुरू हो गया था. वे दोनों कहते थे कि हिन्दुओं के इतने बड़े गाँव में अकेला मुस्लिम परिवार होने की वजह से वह लोग सुरक्षित नहीं हैं. अतः यहाँ की ज़मीन-जायदाद बेचकर किसी मुस्लिम गाँव में जाकर रहना चाहते थे. असलम के ससुराल वाले भी दोनों को इस बात के लिए उकसा रहे थे. किन्तु अहमद मियाँ जिद पर अड़े थे कि जिस माटी से पैदा हुए, उसी में दफ़न होंगे. उनका कहना था कि उनके वालिद साहब की और उनकी उम्र इसी गाँव में गुज़र गयी. इतने सालों में किसी ने उन्हें अहसास तक नहीं होने दिया कि वे मुसलमान हैं. उनके साथ कभी कोई भेदभाव नहीं किया गया. गाँव के किसी भी सम्मानित हिन्दू से कम उनकी इज्ज़त नहीं होती है. फिर अचानक यह हिन्दू-मुसलमान का मसला कहाँ से आ गया और असुरक्षा की बात कहाँ से आ गयी? दो-तीन साल तक यह झगड़ा चलता रहा. तभी अचानक एक दिन पता चला कि अहमद मियाँ ने ज़हर खाकर ख़ुदकुशी कर ली है. लेकिन गाँव के अधिकांश लोगों का मानना है कि असलम और उसकी बीवी ने ही उनको ज़हर दिया था."

"और अब असलम कहाँ है?" - श्याम ने पूछा.

"अपने ससुराल के गाँव में कुछ ज़मीन खरीदी है, वहीँ रह रहा है." - अम्मा ने बताया.

"उनकी ज़मीन?" - श्याम की आँखों से बहने वाली अश्रुधारा तेज हो गयी.

"वैसे ही पड़ी है." - अम्मा का जवाब था. "गाँव के लोगों ने न तो खुद खरीदा और न ही किसी और को खरीदने दिया."

श्याम के ह्रदय पर मानों कोई पत्थर रख दिया गया हो. वह लड़खड़ाते हुए क़दमों से अपने कमरे की ओर चल पड़ा. गाँव आने की सारी ख़ुशी जाती रही. उसकी हालत उस वणिक के जैसी हो गयी थी जो व्यापर में अपना मूलधन गवाँकर खाली हाथ घर लौटा हो.

टिप्पणियाँ

  1. आदरणीय राजेशजी, आपकी इस मार्मिक लघुकथा ने सचमुच रुला दिया..धर्म-जाति में बँटे हमारे समाज को आज आप जैसे चिंतकों और लेखकों से बहुत उम्मीदें हैं..वर्तमान युवा-पीड़ी को दिशा दिखाती और प्रेरित करती इस संवेदनशील कथा पर मेरा प्रणाम स्वीकार कीजिये

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  2. वाह भाई वाह, कमाल किया है आपकी लेखनी ने. ग्रामीण जीवन-शैली, रहन-सहन में समय के साथ जातिवाद, धर्मवाद के कारण काफी बदलाव आ चुका है, परन्तु आज भी गावों में शहर की तुलना में काफी समरसता एवं सामाजिकता विद्यमान है. आपकी यह रचना अत्यंत सशक्त, प्रभावशाली एवं ह्रदय-स्पर्शी है. शेयर करने का बहुत-बहुत शुक्रिया

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  3. ब्लागजगत मी आपका स्वागत है। बहुत मार्मिक लघुकथा है। धर्म जाति के नाम पर जिस तरह इन्सानियत का बटवारा हो रहा है चिन्ताजनक है। शुभकामनायें।

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  4. बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति|

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  5. आप सभी को आपकी टिप्पणियों और प्रोत्साहन के लिए बहुत बहुत धन्यवाद!

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  6. अहमद चाचा के रूप में ...आज भी गाँवों में लोग है //..प्रेम और प्यार में धर्म आड़े नहीं आती

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  7. लेखन के मार्फ़त नव सृजन के लिये बढ़ाई और शुभकामनाएँ!
    -----------------------------------------
    आलेख-"संगठित जनता की एकजुट ताकत
    के आगे झुकना सत्ता की मजबूरी!"
    का अंश.........."या तो हम अत्याचारियों के जुल्म और मनमानी को सहते रहें या समाज के सभी अच्छे, सच्चे, देशभक्त, ईमानदार और न्यायप्रिय-सरकारी कर्मचारी, अफसर तथा आम लोग एकजुट होकर एक-दूसरे की ढाल बन जायें।"
    पूरा पढ़ने के लिए :-
    http://baasvoice.blogspot.com/2010/11/blog-post_29.html

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  8. नमस्कार
    अच्छी पोस्ट ..लेखन शैली काबिल- ए- तारीफ है ...आगे बढ़ें ..आपकी नयी पोस्ट का इन्तजार रहेगा ...शुभकामनायें

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  9. भारतीय ब्लॉग लेखक मंच
    की तरफ से आप, आपके परिवार तथा इष्टमित्रो को होली की हार्दिक शुभकामना. यह मंच आपका स्वागत करता है, आप अवश्य पधारें, यदि हमारा प्रयास आपको पसंद आये तो "फालोवर" बनकर हमारा उत्साहवर्धन अवश्य करें. साथ ही अपने अमूल्य सुझावों से हमें अवगत भी कराएँ, ताकि इस मंच को हम नयी दिशा दे सकें. धन्यवाद . आपकी प्रतीक्षा में ....
    भारतीय ब्लॉग लेखक मंच

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