सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

सरोज

मैं पुनि समुझि देखि मन माहीं। पिय बियोग सम दुखु जग नाहीं॥

प्राननाथ करुनायतन सुन्दर सुखद सुजान।
तुम्ह बिनु रघुकुल कुमुद बिधु सुरपुर नरक समान॥६४॥

श्रीरामचरितमानस का पाठ कर रही सरोज के कानों में अचानक सास की उतावली आवाज सुनाई दी - "अरे बहुरिया, अब जल्दी से ये पूजा-पाठ बंद कर और रसोई की तैयारी कर. दो-तीन घड़ी में ही बिटवा घर पहुँच जाएगा. अब ट्रेन के खाने से पेट तो भरता नहीं है, इसलिए घर पहुँचने के बाद उसे खाने का इंतजार न करना पड़े." सरोज ने पाठ वहीं बंद कर दिया और भगवान को प्रणाम कर उठ गयी. शिवम को दूध देकर रसोई की तैयारी में लग गयी. आज भानू चार सालों के पश्चात् मुंबई से वापस आ रहा था.

भानू और सरोज की शादी लगभग छः वर्ष पूर्व हुई थी. दोनों साथ-साथ कॉलेज में पढ़ते थे और अपनी कक्षा के सर्वाधिक मेधावी विद्यार्थियों में से एक थे. पढ़ाई के दौरान ही एक दूसरे के संपर्क में आये और प्यार परवान चढ़ा. घरवालों ने विरोध किया तो भागकर शादी कर ली. इसी मारामारी में पढ़ाई से हाथ धो बैठे और ज़िन्दगी में कुछ बनने, कुछ करने का सपना सपना ही रह गया. इस घटना के समय दोनों स्नातकोत्तर प्रथम वर्ष में अध्ययनरत थे.

घर से भागने के करीब पाँच-छः महीने पश्चात् दोनों के माता-पिता ने आपस में विचार-विमर्श किया और इस नतीजे पर पहुंचे कि उनके कड़े रुख से बच्चों का जीवन और कष्टकारक ही होगा. अतः एक दूसरे को अपना सम्बन्धी स्वीकार कर उन दोनों को समझा-बुझाकर किसी तरह से घर वापस ले आये. घर आने के लगभग सात महीने पश्चात् सरोज ने एक बड़े ही प्यारे से बेटे को जन्म दिया, जिसका नाम शिवम रखा गया. शिवम के जन्म के पश्चात् भानू के सामने तमाम नए छोटे-बड़े खर्चे आने लगे, जिनके लिए रोज-रोज पिताजी से पैसा माँगना अच्छा नहीं लगता था. अतः बहुत सोच-विचार करने के पश्चात् उसने घर छोड़ने का निश्चय किया और अपने एक मित्र के पास मुंबई चला गया.

भानू बचपन से ही अत्यन्त कुशाग्र बुद्धि तथा बातचीत में पारंगत था. जहाँ भी जाता था, अपनी बातों से लोगों को मंत्रमुग्ध कर देता था. भगवान ने शारीरिक सुन्दरता भी दी थी. कुल मिलकर वह एक अत्यन्त आकर्षक व्यक्तित्व का मालिक था. मुंबई में उसे एक मल्टीनेशनल कम्पनी में सेल्स एग्जीक्यूटिव का जॉब मिल गया. अपनी तीव्र बुद्धि और कड़ी मेहनत से कुछ महीनों में ही वह अपने सीनियर्स का चहेता बन गया और उसके प्रदर्शन को देखते हुए समय से पूर्व ही उसे प्रोमोशन मिल गया.

कमाई में बढ़ोत्तरी तथा खाने-पीने की दिक्कतों की वजह से वह अपने परिवार को मुंबई बुलाना चाहता था. माँ से बात की तो माँ ने कहा कि गाँव में खेती-बारी और दादाजी की स्थिति को देखते हुए वह और पिताजी तो मजबूर थे, किन्तु वह चाहे तो सरोज को ले जा सकता था. बस क्या था, पहुँच गया अगले महीने सरोज और शिवम को लेने. किन्तु होनी को कुछ और ही मंज़ूर था. घर पहुंचते ही उसकी सारी ख़ुशी गायब. आस-पास की औरतों ने माँ को अच्छी तरह से समझा दिया था कि अगर एक बार बहू को बेटे के साथ रहने को भेज दिया, तो बेटे और बहू दोनों से हाथ धो बैठोगी. अतः माँ ने अपनी तबीयत का बहाना कर सरोज को रोक लिया और भानू को मन मसोसकर अकेले वापस लौटना पड़ा.

मुम्बई पहुँचने के पश्चात् भानू हमेशा खोया-खोया रहने लगा. उसका मन खिन्न हो गया था. धीरे-धीरे घर पर फोन करना भी कम कर दिया. महीने दो महीने में एक बार बात कर लेता था. शुरू-शुरू में शिवम की यादें उसे बेचैन कर देती थीं, लेकिन उसका आवेग भी अब कम हो गया था. खुश होने का कोई बहाना नहीं था. खोखली हँसी के पीछे से उदासी झाँकती रहती थी. उसका सतत उदास चेहरा सहकर्मियों को खटकने लगा. सबने समझाने की कोशिश की, किन्तु कुछ खास फायदा नहीं हुआ.

दुखित मन, युवा शरीर और उस पर अकेलेपन का दर्द; थोड़ी सी भी सहानुभूति और प्यार मिलने पर बरबस खिंचा चला जाता है. उस पर अगर यह सहानुभूति और प्यार अगर एक खूबसूरत लड़की से मिले तो...! इस घटना के कुछ महीनों के पश्चात् भानू की मुलाकात आस्था नामक एक लड़की से हुई. एक मीटिंग के दौरान दोनों संपर्क में आये और जान-पहचान कब दोस्ती से होते हुए प्यार में बदल गई, पता ही नहीं चला. आस्था बहुत ही खूबसूरत और तेज-तर्रार लड़की थी. एक दिन अचानक उसने भानू के समक्ष शादी का प्रस्ताव रखा और हत्प्रभ भानू ने बिना कुछ सोचे-समझे एक महीने का समय माँग लिया. लोग कहते हैं कि इश्क-मुश्क छुपाये नहीं छुपता. किसी तरह से भानू के घर वालों को यह बात पता चल गयी. माँ ने समझाने की कोशिश की, तो असर विपरीत पड़ा और अंततः भानू ने आस्था से शादी कर ली. अभागी, हत्बुद्धि सरोज अचानक लगे इस झटके से उबर न सकी और इस सारे घटनाक्रम में मौन रही. वह समझ न सकी कि उसे किस गलती की सजा मिल रही है.

आस्था एक निहायत ही समझदार और सुलझी हुई लड़की थी. वह मुम्बई में ही पैदा हुई और पली-बढ़ी थी. स्कूली शिक्षा पूरी करके उच्च शिक्षा के लिए लन्दन चली गयी थी. भानू से मिलने के कुछ महीनों पहले ही मुम्बई वापस लौटी थी. उसे पता न था कि भानू पहले से ही शादीशुदा है. जब पता चला तो पैरों तले से ज़मीन खिसक गयी. वह अपने आपको अत्यन्त अपमानित और ठगी हुई महसूस करने लगी. लेकिन इससे भी बढ़कर उसके दिल पर यह बात बोझ बनकर बैठ गयी कि एक औरत होकर उसने अनजाने में ही सही, दूसरी औरत का सुहाग छीन लिया है और उस निरपराध को ज़िन्दगी भर के लिए अँधेरे कुएँ में धकेल दिया है. अतः उसने अपने माता-पिता से विचार-विमर्श करके गर्भवती होने के बावजूद भानू को तलाक दे दिया.

भानू की स्थिति अब बद से बदतर हो चली. निराशा और हताशा ने उसे चारों ओर से घेर लिया. घर लौटने की राह उसने स्वयं ही बंद कर दी थी. मुम्बई में उसके जानने वाले लोग उसे ज़िल्लत की नज़रों से देखने लगे. मान-प्रतिष्ठा धूल में मिल गयी. हमेशा शराब के नशे में धुत रहने लगा. काम में मन नहीं लगता था और परफोर्मेंस दिन-ब-दिन ख़राब होती गयी. परिणाम यह हुआ कि नौकरी से भी हाथ धोना पड़ा. यह बात जब घर वालों को पता चली तो माँ ने पिताजी को अपनी कसम देकर किसी तरह से उसे वापस लाने पर राजी कर लिया. आज पिताजी उसे मुम्बई से लेकर वापस आ रहे थे.

घर पहुँचने के पश्चात् सबसे दण्ड-प्रणाम कर ओसारे में माँ के पास सर झुकाकर बैठ गया. किसी से भी नजरें मिलाने की हिम्मत नहीं हुई. शिवम दूर से ही अजीब नज़रों से देखता था, फिर भाग जाता था. माँ ने सिर पर हाथ फेरकर हालचाल पूछा तो अपराध बोध से फफक-फफक रो पड़ा. माँ ने समझा-बुझा कर शांत किया और कहा कि रोने से तो अब कुछ भी वापस नहीं आने वाला है, अतः आगे की सोचो. इन्हीं सब बातों में दिन बीत गया.

रात को अपने कमरे में कदम रखने के पहले उसने काफी सोच-विचार किया कि सरोज से किस तरह से माफ़ी माँगे. जिस घड़ी का उसे बेसब्री से इंतजार था, अंततः वह आ गई. घर के कामों से निवृत्त होकर सरोज जब कमरे में आयी, तो भानू के दिल की धड़कन बढ़ गयी. दोनों बहुत देर तक पलंग के अलग-अलग किनारों पर चुपचाप लेटे विचारों में खोये रहे. फिर भानू ने ही बातचीत शुरू की और अपने किये पर शर्मिंदा होते हुए सरोज से माफ़ी माँगी और कहा कि भगवान ने उसके कर्मों की सजा उसे दे दी है. सरोज ने कहा कि उसे माफ़ी माँगने की जरूरत नहीं है. भानू के मन से जैसे बहुत बड़ा बोझ उतर गया. फिर उसने अपना हाथ सरोज के हाथ की तरफ बढ़ा दिया. इससे पहले कि वह अपना हाथ सरोज के हाथ पर रखता, सरोज ने झटके से अपना हाथ खींच लिया. भानू उसके चेहरे की ओर देखने लगा, जो कि इस समय एकदम सख्त था. तभी सरोज ने ठन्डे लहजे में कहा - "यह आपका घर है, अतः आपके यहाँ रहने पर मुझे कोई ऐतराज नहीं है. बल्कि एक बूढ़े माँ-बाप को उनका बेटा वापस मिल जाएगा, जिसके लिए वो दिन-रात आँसू बहाया करते थे. शिवम को भी मैं पिता के प्यार से वंचित नहीं करना चाहती. किन्तु, कृपा करके आप मुझे स्पर्श करने की कोशिश मत कीजियेगा. अब आप मेरे लिए पर पुरुष हैं और मैं जीते जी अपने पति के अलावा किसी और पुरुष को अपना शरीर छूने की इजाज़त नहीं दे सकती. आपके साथ इस कमरे में मैं सिर्फ इसलिए हूँ, ताकि उन तीनों की ख़ुशी में खलल न पड़े."

भानू अवाक् सरोज का मुँह ताकता रहा. उसे एक दुखद, एकाकी, घुटन से भरा हुआ भविष्य आगे दिखाई दे रहा था. यही उसकी सजा थी. यही उसका पश्चात्ताप था.

टिप्पणियाँ

  1. "इस संसार में जिसने स्त्री के अंतर्मन की गहराई माप कर उसका दिल जीत लिया तो मानो उसने संसार जीत लिया..एक स्त्री के अंतर्मन की गहराई मापना असंभव है"

    जवाब देंहटाएं
  2. धन्यवाद सिंह साहब, बबन भाई, चेतन भाई! आप लोगों के प्रोत्साहन से सर्वदा एक नूतन मानसिक उर्जा का संचार होता है.

    जवाब देंहटाएं
  3. राजेश भाई, बहुत सुन्दर कहानी है.
    भानु द्वारा आस्था से विवाह का निर्णय किसी भी दृष्टिकोण से स्वीकार किये जाने योग्य नहीं है. भानु के साथ जो हुआ उसके लिए सरोज कत्तई ज़िम्मेदार नहीं थी. अतः सरोज का बर्ताव एवं निर्णय एकदम सही एवं संतुलित है. इस कहानी में सरोज के माध्यम से स्त्री ह्रदय की विशालता एवं त्याग को बड़े ही प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया गया है. भानु के सन्दर्भ में ये पंक्तियाँ सटीक लगती हैं -

    बिना बिचारे जो करे सो पाछे पछताय, काम बिगाड़े आपनो जग में होत हँसाय.

    जवाब देंहटाएं
  4. राजेश जी ... आपकी कहानी सच में प्रेरणादायक है ...सबसे अच्छी बात आपने अपनी कहानी में सरोज और आस्था ... दोनों के चरित्र में ... त्याग और बलिदान को दर्शाया है ... बहुत ही सुन्दर रचना .... बधाई हो आपको ..

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

अहमद चाचा

लन्दन के हीथ्रो एअरपोर्ट से जैसे ही विमान ने उड़ान भरी, श्याम का दिल बल्लियों उछलने लगा. बचपन की स्मृतियाँ एक-एक कर मानस पटल पर उभरने लगीं और जैसे-जैसे विमान आसमान की ऊँचाई की ओर बढ़ता गया, वह आस-पास के वातावरण से बेसुध अतीत में मग्न होता चला गया. माँ की ममता, पिताजी का प्यार, मित्रों के साथ मिलकर धमाचौकड़ी करना, गाँव के खेल, नदी का रेता, हरे-भरे खेत, अनाजों से भरे खलिहान और वहां कार्यरत लोगों की अथक उमंग, तीज त्यौहार की चहल-पहल आदि ह्रदय को रससिक्त करते गए. गाँव के खेलों की बात ही कुछ और है. चिकई, कबड्डी, कूद, कुश्ती, गिल्ली-डंडा, लुका-छिपी, ओल्हा-पाती, कनईल के बीज से गोटी खेलना, कपड़े से बनी हुई गेंद से एक-दूसरे को दौड़ा कर मारना आदि-आदि. मनोरंजन से भरपूर ये स्वास्थ्यप्रद खेल शारीरिक और मानसिक उन्नति तो प्रदान करते ही हैं, इनमें एक पैसे का खर्च भी नहीं होता है. अतः धर्म, जाति, सामाजिक-आर्थिक अवस्था से निरपेक्ष सबके बच्चे सामान रूप से इन्हें खेल सकते हैं. इन सबसे अलग एक सबसे प्यारी चीज़ थी जिसके लिए वह वर्षों व्याकुल रहा, वह थे अहमद चाचा. हिन्दुओं के इस गाँव में एक अहमद चाचा का ही प

हम भारतीयों के भी बड़े ठाट होते हैं

हम भारतीयों के भी बड़े ठाट होते हैं, बारह चार की गाड़ी को पहुँचने में बारह आठ होते हैं। समय से कहीं भी हम नहीं पहुँचते, देर से पहुँचना/प्रतीक्षा करवाना/दूसरों का समय नष्ट करना बड़प्पन की निशानी समझते॥ अपना लिया है हमने पाश्चात्य गीत/संगीत/नृत्य/ भाषा-बोली/खान-पान/रहन-सहन, किन्तु, नहीं अपना सके उनकी नियमितता/राष्ट्रीयता/अनुशासन। करते हैं आधुनिकता का पाखण्ड, भरते हैं उच्च सामाजिकता का दम्भ; कहते हैं हमारी सोच नई है, किन्तु, मानवता मर गई है! भूलते जा रहे हैं अपनी उत्कृष्ट सभ्यता/संस्कृति/संस्कार/स्वाभिमान/ माता-पिता-गुरु का मान-सम्मान/ गाँव/समाज/खेत/खलिहान/ देशप्रेम/राष्ट्रसम्मान! अंतर्राष्ट्रीय मंच पर अपनी बात कहने का साहस नहीं कर पाते हैं, गली-नुक्कड़ पर भाषणबाजी करते जाति-धर्म के नाम पर लोगों को भड़काते/आग लगाते हैं। नहीं समझते हैं कि कश्मीर/लेह/लद्दाख दे देने में नहीं है कोई बड़ाई, यह कोई त्याग नहीं है यह तो है कदराई। अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है समय है, सँभल जाओ; अरे वो सुबह के भूले बुद्धू शाम को तो घर आओ!

जिंदगी मैं तेरे तराने लिख रहा हूँ

बीते पलों के अफ़साने लिख रहा हूँ। जिंदगी मैं तेरे तराने लिख रहा हूँ॥ हालत कुछ यूँ कि वक्त काटे नहीं कटता, वक्त काटने के बहाने लिख रहा हूँ॥ नदिया किनारे, पेड़ों की छाँव में, देखे थे जो सपने सुहाने लिख रहा हूँ॥ हँसते-खेलते, अठखेलियाँ करते, खूबसूरत गुज़रे ज़माने लिख रहा हूँ॥ धुंधली ना पड़ जाएँ यादें हमारी, नयी कलम से गीत पुराने लिख रहा हूँ॥ जिसके गवाह थे वो झुरमुट, वो झाड़ियाँ, तेरे-मेरे प्यार की दास्तानें लिख रहा हूँ॥