अग्नि हूँ मैं!
यदि भस्म होने का साहस है,
अस्तित्व खोने का साहस है,
तो ही समीप आना।
दग्ध हो सकते हो यदि
मेरा तेज लेकर
दहकते सूर्य की तरह,
और दे सकते हो जीवन
दूसरों को,
कर सकते हो उनका
पालन पोषण
उस ऊर्जा से,
तो ही समीप आना।
सोख सकते हो यदि
मेरे ताप को
शीतल सुधांशु की तरह,
और बाँट सकते हो अमृत
इस नश्वर संसार में,
बिखेर सकते हो
धवल चन्द्रिका
भयानक अँधेरी रात में,
तो ही समीप आना।
जल सकते हो यदि
आँच में मेरी
दीपक की तरह,
दे सकते हो अपना रक्त
तेल की जगह,
और बाँट सकते हो
आशा का उजियारा
निराश, उदास
अँधेरे में बिलखते, छटपटाते
विपन्न परिवारों को,
तो ही समीप आना।
जल सकते हो यदि
यज्ञ की समिधा की भाँति
थथक-धधक कर
मेरी लपलपाती
जिह्वाओं के मध्य,
और बन सकते हो
सत्यनिष्ठ वाहक
आहुतियों का
जनकल्याण हेतु,
तो ही समीप आना।
सह सकते हो यदि
मेरे हलाहल का संताप
शिव की तरह,
और समर्पित कर सकते हो मुझे
अपनी तीसरी आँख
सचराचर के कल्याण हेतु
सदा सर्वदा के लिए,
फिर भी रह सकते हो
प्रसन्नचित्त
स्वयं भी
औरों पर भी,
तो ही समीप आना।
- राजेश मिश्र
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