जैसे-जैसे वय बढ़ती है।
अभिलाषाएँ सिर चढ़ती हैं।।
जिन गलियों को छोड़ चुके थे,
वे फिर से अपनी लगती हैं।।
पूरी नहीं हुईं इच्छाएँ,
बच्चों के आश्रय पलती हैं।।
भ्रान्ति श्रेष्ठता की भूथर-सी,,
अपनी बुद्धि बड़ी लगती है।।
छोटे-बड़े सभी दुत्कारें,
फिर भी टाँग अड़ी रहती है।।
वानप्रस्थ, संन्यास भुला दो,
नस-नस मोह-नदी बहती है।।
राम-नाम मुख कैसे आवे?
निंदा-स्तुति चलती रहती है।।
- राजेश मिश्र
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