न जाने क्यों!
देखकर तुमको पिघलता है मेरा मन,
ज्यों हिमालय पिघलता हो,
छू सुनहरी रश्मियों को।।
भाव-जल पूरित तुम्हारे युगल-लोचन,
लजा देते हैं अपरिमित उदन्वत् को।
जलधि जल खारा, दृगों के भाव मधु सम,
सिक्त करते, तृप्त करते, तप्त हृत को।
न जाने क्यों!
देखकर तुमको उमगता है मेरा मन,
तृषित सागर उमगता ज्यों
अंक भरकर निर्झरी को।।
सघन घन जैसे तुम्हारे कृष्ण कुन्तल,
खेलते हैं चन्द्रमुख से नत निरंतर।
तन अलौकिक सत्त्वगुण की मूर्ति कोई
आ गई हो उतरकर देवी धरा पर।
न जाने क्यों!
देखकर तुमको विनत होता मेरा मन,
पृथुल पुष्कर विनत हो ज्यों
चूमकर विश्वम्भरा को।।
उदन्वत् = समुद्र
पृथुल = विशाल
पुष्कर = आकाश
विश्वम्भरा = पृथ्वी
- राजेश मिश्र
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