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चित्तभूमियाँ

क्षिप्तं, मूढं, विक्षिप्तमेकाग्रं, निरुद्धमिति चित्तभूमय:।


क्षिप्त, मूढ, विक्षिप्त, एकाग्र और निररुद्ध -  चित्त की ये पाँच भूमियाँ होती हैं।


सारी सृष्टि सत्त्व, राजस् और तमस् - इन तीन गुणों का ही परिणाम है। एक धर्म, आकार अथवा रूप को छोड़कर दूसरे धर्म, आकार अथवा रूप के धारण करने को परिणाम कहते हैं। चित्त इन गुणों का सर्वप्रथम सत्त्वप्रधान परिणाम है। इसीलिए इसको चित्तसत्त्व भी कहते हैं। 


यह सारा स्थूल जगत जिसमें हमारा व्यवहार चल रहा है, रज तथा तमप्रधान गुणो का परिणाम है। इसके बाह्य तथा अभ्यंतर संसर्ग से जो चित्तसत्त्व में क्षण-क्षण गुणों का परिणाम हो रहा है, उसकी चित्तवृत्ति कहते हैं। 


चित्तसत्त्व ज्ञान स्वभाव वाला है। जब उसमें रजोगुण और तमोगुण का मेल होता है तब ऐश्वर्य, विषय प्रिय होते हैं। जब यह तमोगुण से युक्त होता है, तब अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य और अनैश्वर्य को प्राप्त होता है। यही चित्त जब तमोगुण के नष्ट होने पर रजोगुण के अंश से युक्त होता है, तब धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्या को प्राप्त होता है। घोड़े की साम्यता ही चित्त की भूमियों या अवस्थाओं का आधार है।


१. क्षिप्त

इसमें रजोगुण की प्रधानता होती है। तम और सत्त्व दबे हुए गौण रूप से रहते हैं। यह राग-द्वेषादि के कारण होती है। इस अवस्था में धर्म-अधर्म, राग-विराग, ज्ञान-अज्ञान, ऐश्वर्य तथा अनैश्वर्य में प्रवृत्ति होती है। जब तमोगुण सत्त्वगुण को दबा लेता है तब अधर्म अज्ञानादि और जब सत्त्व तम को दबा लेता है, तब धर्म, ज्ञानादि में प्रवृत्ति होती है। साधारण सांसारिक मनुष्य इसी अवस्था में रहते हैं।


२. मूढ

इस अवस्था में तम प्रधान होता है। रज तथा सत्त्व दबे हुए गौण रूप से रहते हैं। यह काम, क्रोध, लोभ और मोह के कारण होती है। चित्र की ऐसी अवस्था में मनुष्य की प्रवृत्ति अज्ञान, अधर्म, राग और अनैश्वर्य में होती है। यह अवस्था नीच मनुष्यों की है।


३. विक्षिप्त 

इस अवस्था में सत्त्वगुण प्रधान रहता है तथा रज और तम दबे हुए गौण रूप से रहते हैं। यह निष्काम कर्म करने तथा राग-द्वेष, काम-क्रोध, लोभ और मोह के छोड़ने से उत्पन्न होती है। इस अवस्था में मनुष्य की प्रवृत्ति धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य में होती है। किंतु रजोगुण बीच-बीच में विक्षेप उत्पन्न करता रहता है। यह अवस्था ऊँचे मनुष्यों तथा जिज्ञासुओं की है।


४. एकाग्र 

चित्त में एक ही विषय में सदृश वृत्तियों का प्रवाह निरंतर बने रहने को एकाग्रता कहते हैं। यह चित्त की स्वाभाविक अवस्था है। इस अवस्था में रजोगुण और तमोगुण पूरी तरह से दबे हुए रहते हैं। इसे सम्प्रज्ञात समाधि भी कहते हैं। इसकी अंतिम स्थिति विवेकख्याति है।


५. निरुद्ध

विवेकख्याति द्वारा जब चित्र और पुरुष के भेद का साक्षात्कार हो जाता है, तब उस विवेकख्याति से भी वैराग्य हो जाता है। यह पर वैराग्य है। इससे उस अंतिम वृत्ति का भी निरोध हो जाता है, केवल पर वैराग्य के संस्कार मंत्र शेष होते हैं। सर्व वृत्तियों के निरोध की इस अंतिम निरुद्धाभावस्था को असम्प्रज्ञात या निर्बीज समाधि भी कहते हैं।


**वह सर्वोच्च, निर्मल ज्ञान जिससे चित्त और पुरुष के भेद का पता चलता है, विवेकख्याति कहलाता है।

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