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लम्पट भँवरा

माली! तेरे सुघड़ बाग में

नवयौवनयुत हरित लता पर

जबसे प्यारी कली खिली है 

लम्पट मधुकर दृष्टि गड़ाए

उसको प्रतिदिन निरख रहा है

मन में अपने मचल रहा है

जिस दिन भी यह फूल बनेगी

मस्त मधुर रस चूसूँगा मैं…


कली, छली का भाव न जाने

वह अबोध, पशु क्या पहचाने 

उसको सब सच्चे लगते हैं 

अच्छी है, अच्छे लगते हैं 

कोई नहीं पराया उसको

अपना लेती मिलती जिसको

सोच रहा वह कुटिल मधुप पर 

मस्त मधुर रस चूसूँगा मैं…


गुनगुन गुनगुन गुनगुन करता

बगिया में निशि-वासर फिरता

लता-लता, हर विटप निहारे 

भँवरा भटके मारे-मारे 

कहाँ, कौन, कब कली खिल रही

किस ममता के अङ्क पल रही 

पता लगाता, मन मुसुकाता

मस्त मधुर रस चूसूँगा मैं…


चञ्चरीक जब तान सुनाए 

भोले माली! तू हरषाए

नहीं जानता, वह लम्पट है

उसकी मीठी तान कपट है

बगिया की गलियों में घूमे

चूसे कुसुम, कली को चूमे 

कली-कली को चूम बोलता 

मस्त मधुर रस चूसूँगा मैं…


- राजेश मिश्र

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