वे घृणा के बीज ऐसे बो गए हैं,
देश में ही हम विदेशी हो गए हैं।
मनुज हो या श्वान या पशु और कोई,
आप घर बेघर स्वदेशी हो गए हैं।
मान लो! सम्भव नहीं उनको जगाना,
जागते हैं, और मुँह ढँक सो गए हैं।
सेज कुक्कुर, सड़क पर माता-पिता हैं,
पतित होकर आज क्या हम हो गए हैं।
मरे कोई, जिए कोई, फर्क क्या है,
आँख के आँसू कहीं पर खो गए हैं।
अज्ञ हैं घर में हमारे कौन, कैसा
दूसरों में व्यस्त इतने हो गए हैं।
रो रहे होंगे कहीं पर बैठकर वे,
धर्म पर, इस राष्ट्र पर मिट जो गए हैं।
- राजेश मिश्र
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