सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

नवंबर, 2024 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मत मार मेरे अल्हड़पन को

मत मार मेरे अल्हड़पन को। इसमें मेरे प्राण निहित हैं,  ऊर्जित करते तन-मन को। मत मार मेरे अल्हड़पन को।। मैं अबोध, जग-बोध नहीं है, पीड़ा है, पर क्रोध नहीं है। निश्छल, छल मैं समझ न पाऊँ, अस्वीकृति, प्रतिरोध नहीं है। निर्झरि निर्मल जल जैसी में, सिंचित करती जीवन को। मत मार मेरे अल्हड़पन को।।१।। हृदय नवोदित नरम कली है, सरस, सुगंधित, सद्य खिली है। मधुर, मदिर, मदमस्त, मनोहर  भावों की सौरभ मचली है। दिग्दिगंत में मुक्त विचरती, भरती, हरती जन-मन को। मत मार मेरे अल्हड़पन को।।२।। सिंदूरी कमनीया काया, अंग-अंग मधुमास समाया। खंजन-से मन-रंजन लोचन, हँसी, कोई वीणा खनकाया। गजगामिनि, गज निरखि लजाये, मोहित करती त्रिभुवन को। मत मार मेरे अल्हड़पन को।।३।। - राजेश मिश्र 

रे बटोही! धीर धर

हाँ, कठिन है जीवन-डगर, रे बटोही! धीर धर।। मार्ग काँटों से भरे हैं, पत्थरों की ठोकरें हैं। है नहीं ठहराव कोई, पथ स्वयं ही चल रहे हैं। हो धूप कितनी भी प्रखर, रे बटोही! धीर धर।।१।। नियत पथ, गंतव्य निश्चित, और यात्रा अवधि निश्चित। ठोकरें कब-कब लगेंगी, घाव-पीड़ा सब सुनिश्चित। व्यर्थ का प्रतिकार मत कर, रे बटोही! धीर धर।।२।। द्वंद्व सह तू, कर्म कर तू, अडिग रह निज धर्म पर तू। तप यही है, साधना है, धर्म का हिय मर्म धर तू। मन मनन कर, चिंता न कर, रे बटोही! धीर धर।।३।। - राजेश मिश्र 

सूरज के ढलने पर ही

सूरज के ढलने पर जब घनघोर अंधेरा पलता है। अरुणोदय की आशा ले दीपक रातों को जलता है।। मन में यह विश्वास प्रबल है अन्धकार मिट जायेगा। स्याह भयावह रात ढलेगी सूरज फिर उग आयेगा। जब तक साँसें चलती रहतीं थके-रुके बिन चलता है। अरुणोदय की आशा ले………।।१।। कोई प्रतिफल नहीं चाहता अनासक्त निज कर्म करे। जन्म जगत में लिया हेतु जिस पालन अपना धर्म करे। निष्कामी का कर्म हमेशा औरों के हित फलता है। अरुणोदय की आशा ले………।।२।। सूरज को उपदेश न देता निज कर्तव्य निभाता है। नई साँझ, नित नया जन्म तम से लड़ने आता है। सत्य-धर्म हित बलि होने को हर इक बार मचलता है। अरुणोदय की आशा ले………।।३।। - राजेश मिश्र

गूँजती हो

गूँजती हो तन में मेरे, मन में मेरे, प्रार्थना के घंटियों-सी, श्रुति-ऋचा सी।। जब कभी एकांत में बैठा हुआ मैं, लड़ रहा होता अँधेरे से घनेरे। आ धमकती हो सुबह की रश्मियों-सी, और करती हो प्रकाशित प्राण मेरे। जगमगाती  तन में मेरे, मन में मेरे, अर्चना के दीप की निर्मल प्रभा-सी।।१।। जब कभी अवसाद के घन घेरते हैं, तुम तड़पती हो, चमकती चंचला-सी। सद्य बुझ जाती स्वयं, पर कर प्रकाशित, टिमटिमाती, गहन तम में तारका-सी। बिखरती हो  तन में मेरे, मन में मेरे, चन्द्रमा के चाँदनी की मधुरिमा-सी।।२।। हर कठिन पल में दिखाती रास्ता तुम, घुप अँधेरे में चमकते जुगनुओं-सी। हृदय लगकर, सोखकर संताप सारे, व्यथित मन में उतरती आशा-किरण सी। और बहती तन में मेरे, मन में मेरे, सर्ग के प्रारम्भ की नव-चेतना-सी।।३।। - राजेश मिश्र 

पंछी रे! उड़ जा उन्मुक्त गगन में

पंछी रे! उड़ जा उन्मुक्त गगन में। पंखों में ले, प्राण पवन से, निर्भयता मन में। पंछी रे! उड़ जा उन्मुक्त गगन में।। तोड़ सकल जंजीरें, उड़ जा, चुपके, धीरे-धीरे उड़ जा। ममता की यह नदी भयावह, निकल भँवर से, तीरे उड़ जा। तड़प रहा तूँ, भला बता क्यूँ उलझा बन्धन में? पंछी रे! उड़ जा उन्मुक्त गगन में।।१।। दुखड़ा तेरा कौन सुनेगा? सुनकर भी कोई न गुनेगा। अपना हो या होय पराया, नित नव नूतन जाल बुनेगा। ठाट-बाट के, जाल काट के उड़ जा कानन में। पंछी रे! उड़ जा उन्मुक्त गगन में।।२।। एक राम को अपना कर ले, नाव नाम की, भव से तर ले। मोहनि मूरति साँवरिया की, नेह लगा ले, उर में धर ले। कर ले पावन, कलुषित जीवन, लग हरि चरनन में। पंछी रे! उड़ जा उन्मुक्त गगन में।।३।। - राजेश मिश्र 

सबके अपने अहंकार हैं

कैसे मिल-जुल साथ चलें सब? प्रश्न विकट, उलझन अपार है… सबके अपने अहंकार हैं।। घर में भाई-भाई लड़ते, बाहर लड़ें पड़ोसी। किसको दोषमुक्त मानें हम, किसको मानें दोषी? ताली बजती दो हाथों से, दोनों पक्ष कसूरवार हैं… सबके अपने अहंकार हैं।।१।। धर्म-कर्म का पता नहीं है, आडम्बर में डूबे। जाति-जाति का भोंपू लेकर  सारे उछलें-कूदें। दम्भी-लोभी-कामी-क्रोधी, सदा स्वार्थ से सरोकार है… सबके अपने अहंकार हैं।।२।। सच्चाई का गला घोंटकर, झूठ की गठरी बाँधे। तीर द्वेष का लेकर घूमें, सरल जनों पर साधें। मेल नहीं कथनी-करनी में, तर्क निरालै निराधार हैं… सबके अपने अहंकार हैं।।३।। - राजेश मिश्र 

जब कोई पत्थर बरसाए

जब कोई पत्थर बरसाए,  खून तुम्हारा खौले है क्या? निरपराध कोई मर जाए,  खून तुम्हारा खौले है क्या? शत्रु-बोध से हीन रहोगे, सदा दुखी अरु दीन रहोगे। आगे चल वंशज कोसेंगे, आजीवन श्रीहीन रहोगे। बहू-बेटियाँ छेड़ी जाएँ,  खून तुम्हारा खौले है क्या? निरपराध कोई मर जाए,  खून तुम्हारा खौले है क्या?………………(१) ऐसा नहीं कि शक्ति नहीं है, या फिर तुममें भक्ति नहीं है। धर्मपरायण, संस्कृति-पोषक, पर विरोध-अभिव्यक्ति नहीं है। मूरति-मन्दिर  तोड़े जाएँ, खून तुम्हारा खौले है क्या? निरपराध कोई मर जाए,  खून तुम्हारा खौले है क्या?………………(२) अथक परिश्रम आजीवन कर, तिनका-तिनका जोड़ बना घर। तात-मात का तोष-प्रदाता, बच्चों का शुचि सपना सुंदर। कोई घर-सम्पत्ति जलाए, खून तुम्हारा खौले है क्या? निरपराध कोई मर जाए,  खून तुम्हारा खौले है क्या?………………(३) - राजेश मिश्र 

नित खींच-तान में फँसे लोग

नित खींच-तान में फँसे लोग। स्वार्थ-जम्बाल में धँसे लोग।। गाँवों की पीड़ा क्या समझें, आजन्म शहर में बसे लोग।। मिलने पर महका जाते हैं, मलय-सा शिला पर घिसे लोग।। सबको सद्य भाँप लेते हैं, जीवन-चक्की में पिसे लोग।। दुख दूसरों का समझ लेते हैं, कृतान्त-पाश में कसे लोग।। चित्त से उतर ही जाते हैं रंग उतरते, मन-बसे लोग।।  रक्त से सदा सींचा जिसने, उसी को सर्प बन डँसें लोग।। मदमस्त झूमते पी-पीकर जातिगत अहं के नशे लोग।। जम्बाल = कीचड़ कृतान्त = भाग्य  - राजेश मिश्र 

घर छोड़ चला है पंछी

खो बचपन, लड़ने जीवन की होड़ चला है पंछी… घर छोड़ चला है पंछी। माँ का आँचल, पितु का साया अब छूटे जाते हैं। करुण स्नेह के निर्झर नयनों से फूटे जाते हैं। प्रेम-निर्झरी की धारा को मोड़ चला है पंछी… घर छोड़ चला है पंछी।।१।। शक्ति-युक्त पंखों को पाकर चला विशाल गगन में। विश्व-विजय करने की इच्छा पाले अपने मन में। नये जगत से अपना नाता जोड़ चला है पंछी… घर छोड़ चला है पंछी।।२।। बिना सहारे, निज पंखों की ताकत अब तौलेगा। मात-पिता-गुरुजन शिक्षा से नये द्वार खोलेगा। निर्भय हो, मन के भय-भ्रम को तोड़ चला है पंछी… घर छोड़ चला है पंछी।।३।। - राजेश मिश्र

बचपन निराश क्यों है

सब बदहवास क्यों हैं? बचपन निराश क्यों है? सारे सम्बन्धों में, इतनी खटास क्यों है? बेटे-बेटियों बीच, माता उदास क्यों है? रात्रि की नीरवता में, मौन अट्टहास क्यों है? आजीवन दूर रहा, आज फिर पास क्यों है? बुझ चुकी आँखों में, सहसा प्रकाश क्यों है? ठुकराया बार-बार, उसी से आस क्यों है? गीदड़ों की गोष्ठी में, बहुत उल्लास क्यों है? सुख-सम्पत्ति सम्पन्न, जलधि में प्यास क्यों है? नियति के अधर-द्वय पर, यह कुटिल हास क्यों है? - राजेश मिश्र

भींगी-भींगी आँखों से, तुमको जाते देखा था

भींगी-भींगी आँखों ने, तुमको जाते देखा था। शायद तुमको याद नहीं। छोड़ो, कोई बात नहीं।। जब तुम डोली में बैठी, बुनती सपने साजन के। था दृग-द्वय से बीन रहा, टूटे टुकड़े मैं मन के। मन के टूटे टुकड़ों ने, तुमको जाते देखा था। शायद तुमको याद नही। छोड़ो, कोई बात नहीं।।१।। याद किए सारे सपने देखे थे मिलकर हमने। कंधे पर सिर रख मेरे  की थीं जो बातें तुमने। उन सपनों की किरचों ने, तुमको जाते देखा था। शायद तुमको याद नहीं। छोड़ो, कोई बात नहीं।।२।। फूल खिलाए थे तुमने  हृदय लगा जो भावों के छलनी कर डाला सीना काँटा बनकर घावों से। भावों के उन घावों ने, तुमको जाते देखा था। शायद तुमको याद नहीं। छोड़ो, कोई बात नहीं।।३।। - राजेश मिश्र 

आभा तेरी आती है

नीले-नीले नभ अंचल से, नव नील-नलिन के शतदल से,  आभा तेरी ही आती है। मनहर मन हर ले जाती है।। जब कुक्कुट टेर लगाता है, सूरज सोकर उठ जाता है। जब घूँघट उषा खोलती है, मृदु मलयज वायु डोलती है। मेघों के श्यामल रंगों से, श्यामला धरा के अंगों से, आभा तेरी ही आती है। मनहर मन हर ले जाती है।।१।। स्वर्णिम रवि-किरणें आती हैं, छूकर कलियाँ मुसकाती हैं। वन-उपवन पुष्प महकते है, जब वाजिन्-वृंद चहकते हैं। जन-जन में जागृत जीवन से, निश्छल नवजात के बचपन से, आभा तेरी ही आती है। मनहर मन हर ले जाती है।।२।। हिमगिरि हिम-हृदय पिघलता है, बन अश्रु नदी जब चलता है। सचराचर सिंचित सिक्त करे, नित नवजीवन उद्दीप्त करे। सागर-सरिता आलिंगन से, हर्षित लहरों के नर्तन से, आभा तेरी ही आती है। मनहर मन हर ले जाती है।।३।। जब सूर्य श्रमित हो जाता है, संध्या की गोद में जाता है। शुभ साँझ का दीपक जलता है, तम से प्रभात तक लड़ता है। घन अंधकार की बाँहों से, निस्तब्ध निशा की साँसों से, आभा तेरी ही आती है। मनहर मन हर ले जाती है।।४।। सब कुछ तेरा ही रचा हुआ, सबमें तू ही है बसा हुआ।‌ सब लीन तुझी में होना है, तुझमें ही है सब प्रकट हुआ। श्रुति...

ढूँढ़ूँ मैं प्रिय राम कहाँ हो?

ढूँढ़ूँ मैं प्रिय राम कहाँ हो? मेरे सुख के धाम कहाँ हो? तुम बिन नैन चैन नहिं पायें, सूखें इक पल, पुनि भर आयें। इत-उत देखें, राह निहारें, पथरायें, पुनि-पुनि जी जायें। लोचन ललित ललाम कहाँ हो? मेरे सुख के धाम कहाँ हो?………(१) अंग शिथिल हैं, तन कुम्हलाया, हुआ अचंचल, मन मुरझाया। हाहाकार हृदय करता है, बुद्धि-विवेक ने ज्ञान गँवाया। तन-मन के आराम कहाँ हो? मेरे सुख के धाम कहाँ हो?………(२) तुम बिन शशधर-भानु रुके हैं, दिवस आदि-अवसान रुके हैं। श्याम वदन दर्शन-वन्दन हित, सतत टूटते प्राण रुके हैं। ढूँढ़ रहे अविराम कहाँ हो? मेरे सुख के धाम कहाँ हो?………(३) - राजेश मिश्र 

साथ-साथ चलते रहना है

लक्ष्य कठिन है, नहीं असंभव, साथ-साथ चलते रहना है। बाधाएँ पग-पग आएंगी, जय करते, बढ़ते रहना है।। भला महल में बैठ बताओ किसने, क्या इतिहास रचा? सात द्वार के भीतर छुपकर  भी क्या कोई शेष बचा? मृत्यु अटल है, आएगी ही, उससे क्या घबराना है? नियत काल है, दशा-जगह है, जीते क्यों मर जाना है? याद रखो! जब तक जीवन है, धर्मयुद्ध लड़ते रहना है। बाधाएँ पग-पग आएंगी, जय करते, बढ़ते रहना है।।१।। युगों-युगों तक देव लड़े रण असुर, दैत्य, दानव दल से। हारे भी, पर लड़े पुन: पुनि, छल को जीता तप-बल से। महल छोड़, वनवासी बनकर, रावण से रण राम लड़े। किया व्ध्वंस आतंक कंस का, आजीवन रण कृष्ण लड़े। अर्जुन-सा वध धूर्त सगों का, धर्म हेतु करते रहना है। बाधाएँ पग-पग आएंगी, जय करते, बढ़ते रहना है।।२।। गुरु गोविंद, प्रताप, शिवाजी  के तलवारों-भालों ने। शत्रु-रक्त से भारत माँ की माँग सजा दी लालों ने। रामचन्द्र, आजाद, भगतसिंह  माटी पर बलिदान हुए। लक्ष्मी, दुर्गा, चेनम्मा की अमर कीर्ति के गान हुए। बन सुभाष हर विषम परिस्थिति  में गाथा गढ़ते रहना है। बाधाएँ पग-पग आएंगी, जय करते, बढ़ते रहना है।।३।। - राजेश मिश्र...

हिंदू-हिंदू भाई-भाई

छोड़ो जाति-पाँति की बातें, हिंदू-हिंदू भाई-भाई। तज दो मन की कड़वी यादें, हिंदू-हिंदू भाई-भाई।। हम सब मनु की संतानें हैं, वर्ण कर्मवश चार हुए। जाति कुशलता की परिचायक, भिन्न-भिन्न व्यापार हुए। गाधितनय ब्रह्मर्षि कहाते, हिंदू-हिंदू भाई-भाई। तज दो मन की कड़वी यादें, हिंदू-हिंदू भाई-भाई।।१।। इक शरीर हैं, अंग अलग हैं , एक हृदय की धड़कन है। पोषित होते उसी उदर से, सबमें रमे वही मन है। रक्त एक है, भेद कहाँ से? हिंदू-हिंदू भाई-भाई। तज दो मन की कड़वी यादें, हिंदू-हिंदू भाई-भाई।।२।। राम-कृष्ण ने जाति देखकर  किसको निम्न-उच्च माना? जो भी आया, हृदय लगाया, अपने जैसा ही जाना। हम क्यों अलग नीति अपनायें? हिंदू-हिंदू भाई-भाई। तज दो मन की कड़वी यादें, हिंदू-हिंदू भाई-भाई।।३।। - राजेश मिश्र  चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः। तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।। - भगवद्गीता अ. ४, श्लो. १३

छिद्रान्वेषी

इस जगत-जंजाल से जो थक चुका है। योग पावन अग्नि में जो पक चुका है। प्रकृति का अवसान कर कृतकृत्य है जो। आत्म की पहचान कर अब नित्य है जो। क्यों अविद्या-क्लेश उसमें ढूँढते हो? वासनाएँ शेष उसमें ढूँढते हो?……(१) असत्, केवल असत् जग जिसके लिए है। ब्रह्म, केवल ब्रह्म सत् जिसके लिए है। ब्रह्म ही जो देखता है इस जगत् में। जीव में, निर्जीव में, हर एक कण में। तमस का क्यों लेश उसमें ढूँढते हो? वासनाएँ शेष उसमें ढूँढते हो?……(२) कर्मफल की कामना से मोड़कर मन। सफल हो असफल, नहीं अत्यल्प उलझन। हो उदासी, कर्म करता जा रहा जो। कर्मपध पर सतत बढ़ता जा रहा जो। कामना अवशेष उसमें ढूँढते हो? वासनाएँ शेष उसमें ढूँढते हो?……(३) कर चुका निज को समर्पित कृष्ण को जो। कर्म करता वह सदा प्रिय इष्ट को जो। जो निरत नित साधना-आराधना में। मधुप इव प्रभु-चरण-रज की याचना में। प्रेममय जो, द्वेष उसमें ढूँढते हो? वासनाएँ शेष उसमें ढूँढते हो?……(४) तुंग-हिमगिरि-शृंग खाई ढूँढ़ते हो। प्रखर रवि-कर-निकर झाँईं ढूँढ़ते हो। सदा सत् में असत् भाई ढूँढ़ते हो। हो बुरे जो बस बुराई ढूँढ़ते हो। छद्म का लवलेश सबमें ढूँढ़ते हो। स्वयं को अनिमेष सबमें ...

बांग्लादेश की त्रासदी

पाँच बरस की सहमी बेटी, छाती से चिपकाए। सात दिनों से घर में दुबकी, नेहा नीर बहाए। दैव! कैसा दुर्दिन दिखलाए? हमने भी तो खून बहाए इस मिट्टी की खातिर। देश हमारा, इसी देश में  आज बने हैं काफ़िर। जिस मिट्टी में हमने अपने, सौ-सौ पुश्त खपाए, भला क्यों कर काफ़िर कहलाए?……(१) सीधे-सादे पति को मारा गाड़ी साध जलाई। अस्मत उनने लूटी मेरी,  जो बनते थे भाई। इस नन्ही सी जान को उनसे, कैसे आज बचाएं? भागकर किस चौखट पर जाएं?……(२) हा दुर्दैव! तोड़ दरवाजा भीड़ घुस गई अन्दर। माँ को मारा, बेटी छीनी हृदयविदारक मंज़र। चीखें बच्ची की टूटीं तब, दानव बाहर आए, हँस रहे बड़ी विजय हों पाए।……(३) पाक, अफगान, बांग्ला में अब नंगा नाच चल रहा। कोटि-कोटि हिंदू भारत में, सेक्युलर बना पल रहा। है भवितव्य यही इनका भी, कौन इन्हें समझाए? लुटें बेटी-बहनें-माताएं।……(४) - राजेश मिश्र

बहनें पढ़-लिख फेमीनिस्ट हो गईं

सामाजिक संरचना ट्विस्ट हो गई। बहनें पढ़-लिख फेमीनिस्ट** हो गईं।।१।। घर की कुंठा ले बाहर आती है, औरों के जीवन में सिस्ट हो गईं।।२।। जब देखो, पीड़ित ही पीड़ित दिखती हैं, किसी कोमलांगी की रिस्ट हो गईं। ।३।। कल तक जो हर मंदिर-मंदिर घूमती थी, चर्च-मॉस्क जा सेक्युलरिस्ट हो गई।।४।। नन्ही सी गुड़िया गोद में बैठकर, हर पीड़ा की थेरेपिस्ट हो गई।।५।। हमको बिछड़े बरसों बीत गए हैं, शनै:-शनै: सारी यादें मिस्ट हो गईं।।६।। थीं निर्बल-सी अलग-अलग अंगुलियां, साथ मिलीं, तो मिलकर फिस्ट हो गईं।।७।। लिखने बैठे जो अपनी जीवन-गाथा, तुम सारी गाथा का जिस्ट हो गई।।८।। **शर्तें लागू  १. यह कथन सभी पढ़ी-लिखी बहनों पर लागू नहीं होता है। २. इसमें कुछ कम पढ़ी-लिखी या अनपढ़ बहनें भी आ सकती हैं। ३. कुछ अनपढ़ बहनें पढ़ी-लिखी से भी बढ़-चढ़कर हो सकती हैं। ४. कृपया व्यक्तिगत मत लें। वैसे इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता है। twist - बदलना feminist - परिभाषित करना कठिन है cyst - गाँठ wrist - कलाई, मणिबन्ध church - गिरिजाघर  mosque - मस्जिद  secularist - आह! बताने की आवश्यकता है? therapist - चिकित्सक  mist - कुहासा f...

तुम आए नवजीवन आया

मुरझाया-सा मन मुसकाया सूने-बूढ़े गाँव में। तुम आए नवजीवन आया सूने-बूढ़े गाँव में।। अनमनि गइयाँ लगीं रँभाने,  चिड़ियाँ चह-चह चहक उठीं। क्षीण-ज्योति बाबा-आजी की आँखें फिर से चमक उठीं। तुम्हें देख आँगन हरषाया सूने-बूढ़े गाँव में। तुम आए नवजीवन आया सूने-बूढ़े गाँव में।।१।। गूँगी-सी माँ की बोली अब कोयल सा रस भरती है। कई बरस के बाद कड़ाही  छन-छन पूड़ी तलती है। पकवानों ने घर महकाया सूने-बूढ़े गाँव में। तुम आए नवजीवन आया सूने-बूढ़े गाँव में।।२।। खेतों में हरियाली आई ताल-पोखरे उमग पड़े। परिजन, पशु, पक्षी, पौधे सब विह्वल तन-मन सजल खड़े। पीपल-पात पुन: लहराया सूने-बूढ़े गाँव में। तुम आए नवजीवन आया सूने-बूढ़े गाँव में।।३।। - राजेश मिश्र