नीले-नीले नभ अंचल से, नव नील-नलिन के शतदल से,
आभा तेरी ही आती है।
मनहर मन हर ले जाती है।।
जब कुक्कुट टेर लगाता है,
सूरज सोकर उठ जाता है।
जब घूँघट उषा खोलती है,
मृदु मलयज वायु डोलती है।
मेघों के श्यामल रंगों से, श्यामला धरा के अंगों से,
आभा तेरी ही आती है।
मनहर मन हर ले जाती है।।१।।
स्वर्णिम रवि-किरणें आती हैं,
छूकर कलियाँ मुसकाती हैं।
वन-उपवन पुष्प महकते है,
जब वाजिन्-वृंद चहकते हैं।
जन-जन में जागृत जीवन से, निश्छल नवजात के बचपन से,
आभा तेरी ही आती है।
मनहर मन हर ले जाती है।।२।।
हिमगिरि हिम-हृदय पिघलता है,
बन अश्रु नदी जब चलता है।
सचराचर सिंचित सिक्त करे,
नित नवजीवन उद्दीप्त करे।
सागर-सरिता आलिंगन से, हर्षित लहरों के नर्तन से,
आभा तेरी ही आती है।
मनहर मन हर ले जाती है।।३।।
जब सूर्य श्रमित हो जाता है,
संध्या की गोद में जाता है।
शुभ साँझ का दीपक जलता है,
तम से प्रभात तक लड़ता है।
घन अंधकार की बाँहों से, निस्तब्ध निशा की साँसों से,
आभा तेरी ही आती है।
मनहर मन हर ले जाती है।।४।।
सब कुछ तेरा ही रचा हुआ,
सबमें तू ही है बसा हुआ।
सब लीन तुझी में होना है,
तुझमें ही है सब प्रकट हुआ।
श्रुति-मन्त्रों के मधु गुंजन से, ऋषियों-मुनियों के चिन्तन से,
आभा तेरी ही आती है।
मनहर मन हर ले जाती है।।५।।
कुक्कुट = मुर्गा
वाजिन् = पक्षी
- राजेश मिश्र
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