गूँजती हो
तन में मेरे, मन में मेरे,
प्रार्थना के घंटियों-सी, श्रुति-ऋचा सी।।
जब कभी एकांत में बैठा हुआ मैं,
लड़ रहा होता अँधेरे से घनेरे।
आ धमकती हो सुबह की रश्मियों-सी,
और करती हो प्रकाशित प्राण मेरे।
जगमगाती
तन में मेरे, मन में मेरे,
अर्चना के दीप की निर्मल प्रभा-सी।।१।।
जब कभी अवसाद के घन घेरते हैं,
तुम तड़पती हो, चमकती चंचला-सी।
सद्य बुझ जाती स्वयं, पर कर प्रकाशित,
टिमटिमाती, गहन तम में तारका-सी।
बिखरती हो
तन में मेरे, मन में मेरे,
चन्द्रमा के चाँदनी की मधुरिमा-सी।।२।।
हर कठिन पल में दिखाती रास्ता तुम,
घुप अँधेरे में चमकते जुगनुओं-सी।
हृदय लगकर, सोखकर संताप सारे,
व्यथित मन में उतरती आशा-किरण सी।
और बहती
तन में मेरे, मन में मेरे,
सर्ग के प्रारम्भ की नव-चेतना-सी।।३।।
- राजेश मिश्र
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