इस जगत-जंजाल से जो थक चुका है।
योग पावन अग्नि में जो पक चुका है।
प्रकृति का अवसान कर कृतकृत्य है जो।
आत्म की पहचान कर अब नित्य है जो।
क्यों अविद्या-क्लेश उसमें ढूँढते हो?
वासनाएँ शेष उसमें ढूँढते हो?……(१)
असत्, केवल असत् जग जिसके लिए है।
ब्रह्म, केवल ब्रह्म सत् जिसके लिए है।
ब्रह्म ही जो देखता है इस जगत् में।
जीव में, निर्जीव में, हर एक कण में।
तमस का क्यों लेश उसमें ढूँढते हो?
वासनाएँ शेष उसमें ढूँढते हो?……(२)
कर्मफल की कामना से मोड़कर मन।
सफल हो असफल, नहीं अत्यल्प उलझन।
हो उदासी, कर्म करता जा रहा जो।
कर्मपध पर सतत बढ़ता जा रहा जो।
कामना अवशेष उसमें ढूँढते हो?
वासनाएँ शेष उसमें ढूँढते हो?……(३)
कर चुका निज को समर्पित कृष्ण को जो।
कर्म करता वह सदा प्रिय इष्ट को जो।
जो निरत नित साधना-आराधना में।
मधुप इव प्रभु-चरण-रज की याचना में।
प्रेममय जो, द्वेष उसमें ढूँढते हो?
वासनाएँ शेष उसमें ढूँढते हो?……(४)
तुंग-हिमगिरि-शृंग खाई ढूँढ़ते हो।
प्रखर रवि-कर-निकर झाँईं ढूँढ़ते हो।
सदा सत् में असत् भाई ढूँढ़ते हो।
हो बुरे जो बस बुराई ढूँढ़ते हो।
छद्म का लवलेश सबमें ढूँढ़ते हो।
स्वयं को अनिमेष सबमें ढूँढ़ते हो।।……(५)
- राजेश मिश्र
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें