शुष्क सरिता का किनारा हो गया हूँ।
शून्य का खोया सितारा हो गया हूंँ।।
मैं सहारा क्या बनूँगा और का?
जब स्वयं ही बेसहारा हो गया हूँ।।
सगर-पुत्रों! कौन तारेगा तुम्हें?
गंग की विपरीत धारा हो गया हूँ।।
नासमझ निज झुंड से कटता गया
शत्रुओं का सहज चारा हो गया हूँ।।
सूर्य-सा तन तेज सारा ढल गया
शाम का गुमसुम नजारा हो गया हूँ।।
जिंदगी में और पर आश्रित हुआ
वृद्ध या बालक दुबारा हो गया हूँ।।
- राजेश मिश्र
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