हँसी बस जब कोई ढूँढे, कहीं रोता नहीं मिलता।।
हजारों साल से सूखा पड़ा था देश में मेरे,
बरस दस खोदते बीते, कहीं सोता नहीं मिलता।
अशिक्षित थे, सुशिक्षित हो बढ़ा पशु-प्रेम कुछ ऐसे
घरों में बिल्लियाँ-कुत्ते, कहीं तोता नहीं मिलता।
धधकती भू, तड़पते जन, सिसकते फेफड़े निशिदिन,
हवा का शुद्ध शहरों में, कहीं झोंका नहीं मिलता।
जहाँ लहलह लहरती थी फसल मौसम कोई भी हो,
पड़े परती उन्हें कोई कहीं बोता नहीं मिलता।
सुनी थी श्रवण की गाथा सदा हमने लड़कपन में,
दुखद अब वृद्ध कोई भी कहीं ढोता नहीं मिलता।
लुटेरे-चोर-हत्यारे सदा थे किंतु अब कोई
लहू के दाग छुप-छुपकर कहीं धोता नहीं मिलता।
प्रिये! जब तुम मिला करती मगन मन नाच उठता था,
वही मन किंतु अब विह्वल कहीं होता नहीं मिलता।
- राजेश मिश्र
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