प्रिय! तुमने अन्याय किया है।
वाणी से जो-जो करना था, आँखों से अंजाम दिया है।
प्रिय! तुमने अन्याय किया है।।
भाव हृदय के जब भी शब्दों में ढल आए
क्रूर मौन से लड़कर बोल नहीं बन पाए
विवश वाक् की हर पीड़ा को मर्यादा का नाम दिया है।
प्रिय! तुमने अन्याय किया है।।१।।
अधरो की कलियों ने जब-जब खुलना चाहा
मधुमय हो श्रवणों में जब-जब घुलना चाहा
प्रेम-पयस् पावन-प्रवाह को निर्दयता से थाम लिया है।
प्रिय! तुमने अन्याय किया है।।२।।
चंचल निर्मल कोमल दृग किसको बतलाएँ
सबके कर्तव्यों का थककर बोझ उठाएँ
तुमने इन नाजुक अंगों को हद से बढ़कर काम दिया है।
प्रिय! तुमने अन्याय किया है।।३।।
- राजेश मिश्र
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें