आज दशहरा, विजय-पर्व है,
विजय-ध्वजा फहराने दो।
रावण को जल जाने दो।।
कोई कैकेई महलों में,
ऐसा अब वरदान न माँगे।
एक पुत्र के लिए सिंहासन,
इक को वन-प्रस्थान न माँगे।
पुत्र-वियोग में कोई दशरथ,
मत धरती से जाने दो।।
रावण को जल जाने दो।।१।।
फिर से कोई भरत-शत्रुघन,
राम-लक्ष्मण से नहिं बिछुड़ें।
किसी अयोध्या नगरी की फिर,
कहीं कभी भी माँग न उजड़े।
किसी उर्मिला के आँचल में,
सूनी साँझ न आने दो।।
रावण को जल जाने दो।।२।।
हरण जानकी का मत हो फिर,
वृद्ध-गिद्ध के पंख कटे नहिं।
अग्नि-परीक्षा देने वाली,
सीता को गृह-त्याग मिले नहिं।
मात-पिता दोनों के आश्रय,
लव-कुश को पल जाने दो।।
रावण को जल जाने दो।।३।।
- राजेश मिश्र
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