सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

अग्नि हूँ मैं

अग्नि हूँ मैं!
यदि भस्म होने का साहस है,
अस्तित्व खोने का साहस है,
तो ही समीप आना।

दग्ध हो सकते हो यदि 
मेरा तेज लेकर
दहकते सूर्य की तरह,
और दे सकते हो जीवन 
दूसरों को, 
कर सकते हो उनका 
पालन पोषण
उस ऊर्जा से,
तो ही समीप आना।

सोख सकते हो यदि 
मेरे ताप को
शीतल सुधांशु की तरह,
और बाँट सकते हो अमृत
इस नश्वर संसार में,
बिखेर सकते हो 
धवल चन्द्रिका 
भयानक अँधेरी रात में,
तो ही समीप आना।

जल सकते हो यदि
आँच में मेरी
दीपक की तरह,
दे सकते हो अपना रक्त 
तेल की जगह,
और बाँट सकते हो 
आशा का उजियारा 
निराश, उदास 
अँधेरे में बिलखते, छटपटाते
विपन्न परिवारों को,
तो ही समीप आना।

जल सकते हो यदि 
यज्ञ की समिधा की भाँति
थथक-धधक कर
मेरी लपलपाती 
जिह्वाओं के मध्य,
और बन सकते हो
सत्यनिष्ठ वाहक
आहुतियों का
जनकल्याण हेतु,
तो ही समीप आना।

सह सकते हो यदि
मेरे हलाहल का संताप 
शिव की तरह,
और समर्पित कर सकते हो मुझे 
अपनी तीसरी आँख
सचराचर के कल्याण हेतु 
सदा सर्वदा के लिए,
फिर भी रह सकते हो 
प्रसन्नचित्त 
स्वयं भी 
औरों पर भी,
तो ही समीप आना।

- राजेश मिश्र 

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

सरोज

मैं पुनि समुझि देखि मन माहीं। पिय बियोग सम दुखु जग नाहीं॥ प्राननाथ करुनायतन सुन्दर सुखद सुजान। तुम्ह बिनु रघुकुल कुमुद बिधु सुरपुर नरक समान॥६४॥ श्रीरामचरितमानस का पाठ कर रही सरोज के कानों में अचानक सास की उतावली आवाज सुनाई दी - "अरे बहुरिया, अब जल्दी से ये पूजा-पाठ बंद कर और रसोई की तैयारी कर। दो-तीन घड़ी में ही बिटवा घर पहुँच जाएगा। अब ट्रेन के खाने से पेट तो भरता नहीं है, इसलिए घर पहुँचने के बाद उसे खाने का इंतजार न करना पड़े।" सरोज ने पाठ वहीं बंद कर दिया और भगवान को प्रणाम कर उठ गयी। शिवम को दूध देकर रसोई की तैयारी में लग गयी. आज भानू चार वर्षों के पश्चात् मुंबई से वापस आ रहा था। भानू और सरोज का विवाह लगभग छः वर्ष पूर्व हुई था। दोनों साथ-साथ कॉलेज में पढ़ते थे और अपनी कक्षा के सर्वाधिक मेधावी विद्यार्थियों में से एक थे। पढ़ाई के दौरान ही एक दूसरे के संपर्क में आये और प्यार परवान चढ़ा। घरवालों ने विरोध किया तो भागकर शादी कर ली। इसी मारामारी में पढ़ाई से हाथ धो बैठे और जीवन में कुछ बनने, कुछ करने का सपना सपना ही रह गया। इस घटना के समय दोनों स्नातकोत्तर प्रथम वर्ष में अ...

अहमद चाचा

लन्दन के हीथ्रो एअरपोर्ट से जैसे ही विमान ने उड़ान भरी, श्याम का दिल बल्लियों उछलने लगा. बचपन की स्मृतियाँ एक-एक कर मानस पटल पर उभरने लगीं और जैसे-जैसे विमान आसमान की ऊँचाई की ओर बढ़ता गया, वह आस-पास के वातावरण से बेसुध अतीत में मग्न होता चला गया. माँ की ममता, पिताजी का प्यार, मित्रों के साथ मिलकर धमाचौकड़ी करना, गाँव के खेल, नदी का रेता, हरे-भरे खेत, अनाजों से भरे खलिहान और वहां कार्यरत लोगों की अथक उमंग, तीज त्यौहार की चहल-पहल आदि ह्रदय को रससिक्त करते गए. गाँव के खेलों की बात ही कुछ और है. चिकई, कबड्डी, कूद, कुश्ती, गिल्ली-डंडा, लुका-छिपी, ओल्हा-पाती, कनईल के बीज से गोटी खेलना, कपड़े से बनी हुई गेंद से एक-दूसरे को दौड़ा कर मारना आदि-आदि. मनोरंजन से भरपूर ये स्वास्थ्यप्रद खेल शारीरिक और मानसिक उन्नति तो प्रदान करते ही हैं, इनमें एक पैसे का खर्च भी नहीं होता है. अतः धर्म, जाति, सामाजिक-आर्थिक अवस्था से निरपेक्ष सबके बच्चे सामान रूप से इन्हें खेल सकते हैं. इन सबसे अलग एक सबसे प्यारी चीज़ थी जिसके लिए वह वर्षों व्याकुल रहा, वह थे अहमद चाचा. हिन्दुओं के इस गाँव में एक अहमद चाचा का ही प...

जिंदगी मैं तेरे तराने लिख रहा हूँ

बीते पलों के अफ़साने लिख रहा हूँ। जिंदगी मैं तेरे तराने लिख रहा हूँ॥ हालत कुछ यूँ कि वक्त काटे नहीं कटता, वक्त काटने के बहाने लिख रहा हूँ॥ नदिया किनारे, पेड़ों की छाँव में, देखे थे जो सपने सुहाने लिख रहा हूँ॥ हँसते-खेलते, अठखेलियाँ करते, खूबसूरत गुज़रे ज़माने लिख रहा हूँ॥ धुंधली ना पड़ जाएँ यादें हमारी, नयी कलम से गीत पुराने लिख रहा हूँ॥ जिसके गवाह थे वो झुरमुट, वो झाड़ियाँ, तेरे-मेरे प्यार की दास्तानें लिख रहा हूँ॥