हृदय-कमल में निशिदिन रहती,
रोम-रोम को पुलकित करती,
मुझको एक निदान दो।
अंबे! यह वरदान दो।।
नैनों में यह शक्ति जगा दो,
देखूँ सकल बुराई।
लेकिन बाहर कुछ नहिं, दीखे
अंतर्मन की काई।
खुरच-खुरचकर फेंकूँ मन से,
आराधन, तेरे चिंतन से,
ऐसा तुम अवदान दो।
अंबे! यह वरदान दो।।१।।
वाणी में माँ शक्ति जगा दो,
तेरा ही गुण गाऊँ।
निकले नाम तुम्हारा केवल,
कहने कुछ भी जाऊँ।
अजपा-जाप का तार न टूटे,
पल भर को भी ध्यान न छूटे,
मन को ऐसा तान दो।
अंबे! यह वरदान दो।।२।।
श्रवण सुनें तेरी ही महिमा,
दूजा रस नहिं भाये।
छन-छन कर अंतस् में पहुँचे,
अरु आनंद बढ़ाये।
निंदा-स्तुति से दूर रहूँ माँ,
सुख-दुख हो समभाव सहूँ माँ,
आत्मतत्त्व का ज्ञान दो।
अंबे! यह वरदान दो।।३।।
- राजेश मिश्र
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें