रुदित उनका दूर जाना, यूँ अकारण कुछ न था। और मेरा लौट आना, यूँ अकारण कुछ न था। द्रोहियों की भीड़ से जब फौज पर पत्थर चले, भीड़ पर गोली चलाना, यूँ अकारण कुछ न था। हर खुशी हर पल निछावर बाल-बच्चों पर किया, मातु-पितु का रूठ जाना, यूँ अकारण कुछ न था। खेत में दिन-रात खटकर जिंदगी जिनकी कटी, गाँव उनका छोड़ जाना, यूँ अकारण कुछ न था। वही आँगन, चार भाई जन्मकर पल-बढ़ गए, भीत उस आँगन उठाना, यूँ अकारण कुछ न था। आज यदि घर से निकल हिंदू सड़क पर आ गए, धैर्य उनका टूट जाना, यूँ अकारण कुछ न था। जो कभी आँखें मिलाकर बात भी करता न था, आज उसका घर बुलाना, यूँ अकारण कुछ न था। जन्मदात्री से अधिक वात्सल्य जिसका राम पर, ठान हठ वन को पठाना, यूँ अकारण कुछ न था। जन्म भर जो धर्म को बस गालियाँ देता रहा, मंदिरों में सिर नवाना, यूँ अकारण कुछ न था। - राजेश मिश्र