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क्यों आती सपनों में मेरे?

जब दिल मेरा तोड़ दिया है मुझे तड़पता छोड़ दिया है  शपथ-वचन तुम सभी भुलाकर  चली गई जब मुझे रुलाकर क्यों आती सपनों में मेरे? पल भर को भी सोचा होता  मन को अपने टोका होता  पग जब उठे दूर जाने को  कोई और अंक पाने को  ठिठकी होती, सँभली होती दुनिया अपनी बदली होती  पर तुमने तो दृष्टि घुमा ली  तब, जब मुझसे आँख चुरा ली  क्यों आती सपनों में मेरे?……(१) मैं तो मगन-मगन रहता था  ताप-शीत हँस-हंँस सहता था  तुमसे ही सारी दुनिया थी  तुम मेरी प्यारी दुनिया थी  भोर तुम्हारी उठती पलकें हंसीं शाम थीं झुकती पलकें रात रँगीली, दिवस निराला  तुमने तहस-नहस कर डाला  क्यों आती सपनों में मेरे?……(२) चलो मान लें अगर विवश थी स्ववश नहीं थी, तुम परवश थी एक नजर तो डाली होती पलकें जरा उठा ली होती हाँ, वाणी चुप रह सकती थी आँखें तो सब कह सकती थीं  लेकिन मुझसे नजर बचाकर चली गई मुख अगर फिराकर  क्यों आती सपनों में मेरे?……(३) - राजेश मिश्र

योगसूत्र समाधिपाद

(१) अथ योगानुशासनम्।।१।। सूत्रार्थ:- अब योगशास्त्र का आरंभ करते हैं। शब्दार्थ:- अथ - अब। आरंभवाचक और मंगलवाचक। योगानुशासनम् = योगस्य अनुशासनम् = योग का अनुशासन। योग - जुड़ना, संयम, समाधि।  अनुशासन - शास्त्र। जिसके द्वारा अनुशासित किया जाए, शिक्षा दी जाए। (२) योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:।।२।। सूत्रार्थ:- चित्र की वृत्तियों का रोकना योग है। शब्दार्थ:- योग: - योग। चित्तवृत्तिनिरोध: = चित्तस्य (चित्त की) वृत्तय: (वृत्तियां) चित्तवृत्तय:, तासां (उनका) निरोध: (रोकना) चित्तवृत्तिनिरोध::। चित्त - योगशास्त्र में अंत:करणसामान्य को ही चित्त कहा गया है। वेदांतशास्त्र में अंत:करण चार बताए गए हैं - मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। संख्यशास्त्र में भी मन, बुद्धि और अहंकार के भेद से अंतःकरण तीन बताए गए हैं। योगशास्त्र में इन तीनों भेदों को स्वीकार किया गया है। चित्त को इन तीनों के वाचक के रूप में लिया गया है।  वृत्ति - चित्त जिस-जिस स्थिति में रहता है, वे स्थितियां चित्त की वृत्तियां हैं।  निरोध - रोकना, निग्रह करना। (३) तदा द्रष्टु: स्वरूपेऽवस्थानम्।।३।। सूत्रार्थ:- उस समय द्रष्टा की अपने स्वरूप ...

लम्पट भँवरा

माली! तेरे सुघड़ बाग में नवयौवनयुत हरित लता पर जबसे प्यारी कली खिली है  लम्पट मधुकर दृष्टि गड़ाए उसको प्रतिदिन निरख रहा है मन में अपने मचल रहा है जिस दिन भी यह फूल बनेगी मस्त मधुर रस चूसूँगा मैं… कली, छली का भाव न जाने वह अबोध, पशु क्या पहचाने  उसको सब सच्चे लगते हैं  अच्छी है, अच्छे लगते हैं  कोई नहीं पराया उसको अपना लेती मिलती जिसको सोच रहा वह कुटिल मधुप पर  मस्त मधुर रस चूसूँगा मैं… गुनगुन गुनगुन गुनगुन करता बगिया में निशि-वासर फिरता लता-लता, हर विटप निहारे  भँवरा भटके मारे-मारे  कहाँ, कौन, कब कली खिल रही किस ममता के अङ्क पल रही  पता लगाता, मन मुसुकाता मस्त मधुर रस चूसूँगा मैं… चञ्चरीक जब तान सुनाए  भोले माली! तू हरषाए नहीं जानता, वह लम्पट है उसकी मीठी तान कपट है बगिया की गलियों में घूमे चूसे कुसुम, कली को चूमे  कली-कली को चूम बोलता  मस्त मधुर रस चूसूँगा मैं… - राजेश मिश्र

तेरी लीला वह ही जाने, तू जतलाए जिसको

जन्म लिया है कोख से किसकी,  मिले बधाई किसको  तेरी लीला वह ही जाने,  तू जतलाए जिसको कान्हा! तू जतलाए जिसको… कौन जानता कारागृह में  क्या लीला दिखलाई। हर्षित हैं वसुदेव-देवकी  झूमे जसुदा माई। बाबा नंद मगन-मन नाचें  सुध-बुध किसकी किसको तेरी लीला वह ही जाने,  तू जतलाए जिसको कान्हा! तू जतलाए जिसको…(1) गगनगिरा सुन कैद में डाला  बहन प्राण से प्यारी। बालक मारे, नहीं विचारे  खल पापी कुविचारी। कंस अभागा कभी न जागा  मारा चाहे किसको  तेरी लीला वह ही जाने,  तू जतलाए जिसको कान्हा! तू जतलाए जिसको…(2) घर-घर मंगलगान बज रहा  मुदित नगर नर-नारी। बाल-वृद्ध वय भूल कूदते  चहुँदिसि उत्सव भारी। हे जगवंदन! दारुण बन्धन  भव का, काटो इसको  तेरी लीला वह ही जाने,  तू जतलाए जिसको कान्हा! तू जतलाए जिसको…(3) - राजेश मिश्र

स्वतंत्रता दिवस

वीरों ने निज रक्तधार से  धरती को नहलाया। सात समुन्दर पार पहुँचकर  ऊधम खूब मचाया।। खोकर पुत्र-कन्त माँ-बहनों  ने आँसू  न बहाया‌। छाती ताने खड़ा तिरंगा  तब जाकर लहराया।। - राजेश मिश्र 

विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस

"विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस" पर व्यथित हृदय की अभिव्यक्ति… आओ, फिर से याद करें हम  भरकर आँख में पानी। बँटवारे की बर्बरता की  वह कारुणिक कहानी।। पुश्तों से जाने-पहचाने गाँव, गली, चौबारे। चूल्हा, चाकी, चौकी, चौखट  घर, बगिया ये सारे। इक रेखा से हुए पराये किसकी कारस्तानी? बँटवारे की बर्बरता की  वह कारुणिक कहानी।।१।। धन-दौलत, पुरखों की थाती लूट लिए आराती। बेटे कटे, बेटियाँ लुट गईं फटती है सुन छाती। लाशों को भर-भर ट्रेनों में भेजी गई निशानी। बँटवारे की बर्बरता की  वह कारुणिक कहानी।।२।। बचते, छुपते, गिरते-पड़ते जीवन ले जो आए। अपनापन ले, आस लगाए आकर हुए पराए। रोटी, कपड़ा, घर न दे सके  दुश्चरित्र, अभिमानी। बँटवारे की बर्बरता की  वह कारुणिक कहानी।।३।। - राजेश मिश्र

चित्तभूमियाँ

क्षिप्तं, मूढं, विक्षिप्तमेकाग्रं, निरुद्धमिति चित्तभूमय:। क्षिप्त, मूढ, विक्षिप्त, एकाग्र और निररुद्ध -  चित्त की ये पाँच भूमियाँ होती हैं। सारी सृष्टि सत्त्व, राजस् और तमस् - इन तीन गुणों का ही परिणाम है। एक धर्म, आकार अथवा रूप को छोड़कर दूसरे धर्म, आकार अथवा रूप के धारण करने को परिणाम कहते हैं। चित्त इन गुणों का सर्वप्रथम सत्त्वप्रधान परिणाम है। इसीलिए इसको चित्तसत्त्व भी कहते हैं।  यह सारा स्थूल जगत जिसमें हमारा व्यवहार चल रहा है, रज तथा तमप्रधान गुणो का परिणाम है। इसके बाह्य तथा अभ्यंतर संसर्ग से जो चित्तसत्त्व में क्षण-क्षण गुणों का परिणाम हो रहा है, उसकी चित्तवृत्ति कहते हैं।  चित्तसत्त्व ज्ञान स्वभाव वाला है। जब उसमें रजोगुण और तमोगुण का मेल होता है तब ऐश्वर्य, विषय प्रिय होते हैं। जब यह तमोगुण से युक्त होता है, तब अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य और अनैश्वर्य को प्राप्त होता है। यही चित्त जब तमोगुण के नष्ट होने पर रजोगुण के अंश से युक्त होता है, तब धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्या को प्राप्त होता है। घोड़े की साम्यता ही चित्त की भूमियों या अवस्थाओं का आधार है। १. क्षिप्त ...

छोड़कर मुझको न जाओ, प्राण मेरे!

वचन पावन मत भुलाओ, प्राण मेरे! छोड़कर मुझको न जाओ, प्राण मेरे! बस तुम्हारे सँग रहूँगी, तपन-शीतलता सहूँगी। सुख सभी तुमको समर्पित, दुख तुम्हारा बाँट लूँगी।। विकल तन-मन तरस खाओ, प्राण मेरे! छोड़कर मुझको न जाओ, प्राण मेरे!……(१) भूख को व्रत जान लूँगी, तरु तले घर मान लूँगी। कामनाएँ त्याग सारी इक तुम्हारा नाम लूँगी।। साथ ले लो, मान जाओ, प्राण मेरे! छोड़कर मुझको न जाओ, प्राण मेरे!……(२) ये महल के भोग सारे, वसन-भूषन बिन तुम्हारे। दाहते तन, ले चलो बस वपुस् वल्कल वस्त्र धारे।। विरह-दुख में मत जलाओ, प्राण मेरे! छोड़कर मुझको न जाओ, प्राण मेरे!……(३) - राजेश मिश्र

योग करें, नीरोग रहें

शरीर और मन का अन्योन्याश्रित संबंध है। सभी शारीरिक क्रियाओं और कार्यों का मन पर तथा मानसिक संकल्प-विकल्प व भावनाओं का शरीर पर प्रभाव पड़ता ही है। उसमें मन का शरीर के ऊपर अधिक प्रभाव पड़ता है। मनुष्य अपनी मनमानी और आचार-विचार के कारण पग-पग पर समस्याओं को आमंत्रित करता रहता है और दुःखी होता है। मन पर नियंत्रण उसे इन दुःखों से बचा सकता है। इसी को ध्यान में रखते हुए हमारे ऋषि-मुनियों ने विविध योग-प्रक्रियाओं की रचना की, जिन्हें अपनाकर शरीर और मन में संतुलन स्थापित किया जा सकता है और मन को नियंत्रित किया जा सकता है। आधुनिक विज्ञान भी व्यक्तित्व विकास में मन की भूमिका को पूरी तरह स्वीकार करता है।  अतः योग करें, नीरोग रहें। - राजेश मिश्र

पातंजल योगसूत्र

योगेन चित्तस्य पदेन वाचां मलं शरीरस्य च वैद्यकेन। योऽपाकरोत्तं प्रवरं मुनीनां पतञ्जलिं प्राञ्जलिरानतोऽस्मि।। भोजराज जी द्वारा महर्षि पतंजलि की यह स्तुति योगाभ्यासियों में अत्यंत प्रचलित है।  योग, व्याकरण और आयुर्वेद के क्षेत्रों में उनकी देन अभूतपूर्व है और मानवजन की आने वाली पीढ़ियों को प्रलयान्त तक लाभान्वित करती रहेगी। चूंकि मैं भी कुछ अंशों तक योग से जुड़ा हुआ हूं, अतः यथासंभव और यथाशक्ति किंचित अध्ययन होता रहता है। इसी क्रम में थोड़ा-बहुत अध्ययन 'पातंजल योगसूत्र' का भी हुआ है। भारतीय दर्शन और आध्यात्मिक परंपरा में योग का विशेष स्थान है। इससे संबंधित अनेकानेक ग्रन्थों में 'पातंजल योगसूत्र' का स्थान सर्वोपरि है जो कि योग का सर्वाधिक प्रामाणिक और व्यवस्थित ग्रंथ है। चार पादों (अध्यायों) के केवल 195 सूत्रों में सारा जीवन-दर्शन समेट दिया है जिस पर कई भाष्य और टीकाएं लिखी गईं, लिखी जा रही हैं और लिखी जाएंगी। चाहे जितनी बार गोते लगाइए, इसकी गहराई का पार पाना आसान नहीं है। लेकिन यह सुनिश्चित है कि जितना डूबते जाएंगे, उतना ही आनंद के रस में सराबोर होते जाएंगे और फिर मन यही ...

क्षमा करना प्रिय! मुझे तुम…

प्रेम की पूंजी तुम्हारी ले हृदय में घूमता हूं। भीड़ में सबको भुलाकर बस तुम्हीं को ढूंढता हूं। उम्र अब चढ़ने लगी है,  थकन भी बढ़ने लगी है, हर तरह के भार से अब मुक्त होना चाहता हूं, भूल कर तुमको स्वयं से युक्त होना चाहता हूं, क्षमा करना प्रिय! मुझे तुम… हां हृदय फटता है मेरा, सोचकर तुमसे जुदाई। इस जुदाई में छिपी है, किंतु दोनों की भलाई। मोह बढ़ता जा रहा है, धैर्य घटता जा रहा है, डिग न जाएं कदम मेरे अडिग रहना चाहता हूं, छोड़कर अनुकूल धारा उलट बहना चाहता हूं, क्षमा करना प्रिय! मुझे तुम… कठिन था मैंने मगर मन को प्रिये! समझ लिया है। इस जगत में अभिलषित जो भी रहा वह पा लिया है। मन को मेरे जानती हो, तुम मुझे पहचानती हो, बस तुम्हीं हिय में रही हो पुनः कहना चाहता हूं, कर लिया संकल्प उस पर अटल रहना चाहता हूं, क्षमा करना प्रिय! मुझे तुम… क्षमा करना प्रिय! मुझे तुम… क्षमा करना प्रिय! मुझे तुम… - राजेश मिश्र 

मुझ पातकी का मोहन! उद्धार नाथ कर दो

मुझ पातकी का मोहन!  उद्धार नाथ कर दो। तुम बिन अनाथ भटकूँ, मुझको सनाथ कर दो।। मद-राग-द्वेष भगवन्! पल-पल सता रहे हैं। मैं निस्सहाय निर्बल निशि-दिन जता रहे हैं। बन बल अबल, जड़ों से  इनका विनाश कर दो। तुम बिन अनाथ भटकूँ, मुझको सनाथ कर दो।।१।। मतिमन्द मैं न जानूँ कैसे तुम्हें रिझाऊँ? किस नाम से पुकारूँ? कैसे समीप आऊँ? मुख से न कह सको तो, संकेत मात्र कर दो। तुम बिन अनाथ भटकूँ, मुझको सनाथ कर दो।।२।। तम ने जकड़ रखा है, पथ सूझता न कोई। भटकाव, ठोकरें हैं, अरु आसरा न कोई। अपनी शरण में ले लो, पथ पर प्रकाश भर दो। तुम बिन अनाथ भटकूँ,  मुझको सनाथ कर दो।।३।। - राजेश मिश्र 

मानव हैं हम द्वेष सहज है

मनुज स्वभाव, नहीं अचरज है। मानव हैं हम, द्वेष सहज है।। निर्बल को जब सबल सताए, वह प्रतिकार नहीं कर पाए, मन पीड़ा से भर जाता है,  द्वेष हृदय घर कर जाता है। वचन कठोर बोलता कोई, जब औकात तोलता कोई, व्यक्ति जहाँ जब डर जाता है, द्वेष हृदय घर कर जाता है। जब कोई प्रिय वस्तु हमारी, लगती जो प्राणों से प्यारी, कोई हमसे हर जाता है, द्वेष हृदय घर कर जाता है। जब जीवन दुखमय हो अपना, सुख बस बन जाए इक सपना, औरों का सुख खल जाता है, द्वेष हृदय घर कर जाता है। कर्महीन जब हम होते हैं, दैव-दैव करते रोते हैं, कर्मठ आगे बढ़ जाता है, द्वेष हृदय घर कर जाता है। आशंका से त्रस्त रहें जब, तिरस्कार-दुत्कार सहें जब, प्रेम हृदय का मर जाता है, द्वेष हृदय घर कर जाता है। यद्यपि द्वेष सहज होता है, किंतु सदा दुखप्रद होता है। शांति हमारी हर लेता है, क्रोध-घृणा मन भर देता है। तिल-तिल हमें जलाता रहता, रोगी सतत बनाता रहता। तन-मन को दूषित कर देता, अंदर विष-ही-विष भर देता। सुहृद दूर हो जाते सारे, सुख सपने बन जाते सारे। कोई निकट नहीं आता है, यह एकाकी कर जाता है। सारा ज्ञान नष्ट कर देता। निर्मल बुद्धि भ्रष्ट कर देता। पापाचा...

चुपके-चुपके मुझको देखें

चुपके-चुपके मुझको देखें, मैं देखूँ तो छुप जाते हैं। प्रेम हृदय का दृग से छलके, कहते-कहते रुक जाते हैं।। आँखें चञ्चल हिरनी जैसी, सतत कुलाँचें भरती हैं। पल को झाँके, पल में भागे, पल भर सद्य ठहरती है। खुलती मधुर अधर कलियों पर, लोलुप भँवरे लुट जाते हैं। प्रेम हृदय का दृग से छलके, कहते-कहते रुक जाते हैं।।१।। कांत-कपोल अरुण आभा से हृदय-कमल खिल जाता है। भावों की भावन सुगंध से मन महमह महकाता है। दंतावलि-द्युति चकाचौंध पर लाखों दिनकर झुक जाते हैं। प्रेम हृदय का दृग से छलके, कहते-कहते रुक जाते हैं।।२।। अलकें लोल कलोल निरत नित अंग-अंग को चूम रहीं। अन्-अधिकृत अंगों पर जहँ-तहँ आवारा बन घूम रहीं। लालायित द्वेषित दृग सबके मुझ भागी पर उठ जाते हैं। प्रेम हृदय का दृग से छलके, कहते-कहते रुक जाते हैं।।३।। - राजेश मिश्र 

हिंदी की शुद्धता

हमारी संस्कृति और परंपरा में माता-पिता का स्थान सर्वोच्च है, और इन दोनों में भी माता प्रथम पूजनीया है। कहा गया है कि यदि माता और पिता दोनों साथ में बैठे हों तो पहले माता को प्रणाम करना चाहिए, तत्पश्चात पिता को। उल्लेखनीय है कि जब भगवान राम वनगमन के लिए तत्पर हुए तो माता कौशल्या ने उनसे कहा - जौं केवल पितु आयसु ताता।  तौ जनि जाहु जानि बड़ि माता।। जौं पितु मातु कहेउ बन जाना। तौ कानन सत अवध समाना।। वाल्मीकि रामायण में कहा गया है - जननीजन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी। स्कंद पुराण में माता के संबंध में उद्धृत है कि -  नास्ति मातृसमा छाया नास्ति मातृसमा गति:। नास्ति मातृसमा त्राण नास्ति मात्सया प्रपा।।  विभिन्न शास्त्र बार-बार माता की महिमा का बखान करते हैं। साथ ही ध्यातव्य  है कि माता शब्द केवल जन्मदात्री के लिए रूढ़ नहीं है। इसकी व्यापकता जड़ से चेतन और स्थूल से सूक्ष्म तक सर्वत्र है। इन्हीं असंख्य माताओं में एक माता हमारी भाषा भी है। उदाहरण के लिए संस्कृत भाषा की वंदना करते हुए कहा जाता है कि - वन्दे संस्कृत मातरम्। राजभाषा और हमारी मातृभाषा हिंदी भी हमारी इन्ही पूजनीय मा...

मनमोहन ने झलक दिखाई

मनमोहन ने झलक दिखाई। तन-कम्पन मन-नंद न जाई।। माथे मोर-मुकुट मनभावन, तन पट-पीत तड़ित सकुचावन, उर वैजन्ती माल सुहाई। मनमोहन ने झलक दिखाई।।१।। झर-झर प्रेम नयन-निर्झर से, भक्तन-जन-मन-मधुवन सरसे, अधर मधुर मुरली मुसकाई। मनमोहन ने झलक दिखाई।।२।। अतुलित छवि लखि लज्जित रति-पति, जन निरखत पावत यदुपति-गति, पाप-ताप-परिताप नसाई। मनमोहन ने झलक दिखाई।।३।। - राजेश मिश्र 

बम्-बम् बोल जगाना है

गोली नहीं चलानी तुमको, नहीं कृपाण उठाना है। शून्य, सुषुप्त, अचेतन जन को बम्-बम् बोल जगाना है।। कुछ अनभिज्ञ और अवगत कुछ, कुछ हैं आँखें मूँदे। कुछ अपनों के ही विरोध में, निशि-दिन नाचें-कूदें। सरल नहीं है, पर सम्भव है, संग सभी को लाना है। बम्-बम् बोल जगाना है।।१।। कुछ समझेंगे समझाने से, कुछ भय से जागेंगे। कुछ निर्बल, सहयोग अपेक्षित, स्वयं नहीं माँगेंगे। साम-दान से, दण्ड-भेद से, अपने साथ मिलाना है। बम्-बम् बोल जगाना है।।२।। मिल-जुलकर सब संग चलेंगे, संस्कृति बच जाएगी। धर्म-ध्वजा चहुँ-दिशि फहरेगी, सन्तति सुख पाएगी। "हेयं दुःखम् अनागतम्" का सबको पाठ पढ़ाना है। बम्-बम् बोल जगाना है।।३।। **हेयं दुःखमनागतम्।। (पातंजलि योगसूत्र, साधनपाद, सूत्र १६) हेयम् - नष्ट करने योग्य  दु:खम् - दुख अनागतम् - जो आया न हो, आने वाला हो  अर्थात् आने वाले दुख नष्ट करने योग्य होते हैं। - राजेश मिश्र 

प्रिय! तेरा संदेश मिला है

रीते नैना झर-झर झरते, झम-झम बरसे सावन। प्रिय! तेरा संदेश मिला है,  झूम रहा है तन-मन।। कितने सावन बीते, सूखे रीते-रीते। प्रेम-लता को हमने  दृग-निर्झर से सींचे। प्रेम-पुष्प पुनि आज खिला है, महका है फिर उपवन। झूम रहा है तन-मन।।१।। उर ऊसर था मेरा, संग मिला जब तेरा। उर्वरता भर आयी, आया नया सवेरा। हरियाली बंजर में छाई, उदित हुआ मन मधुवन। झूम रहा है तन-मन।।२।। विधि को मिलन हमारा लेकिन रास न आया। टूटा प्रेम-घरौंदा, हमने साथ बनाया। चकनाचूर हुए सब सपने, बिखर गया था जीवन। झूम रहा है तन-मन।।३।। - राजेश मिश्र