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चूम लो

चूम लो… चपल चितवन से मुझे तुम चूम लो। अहर्मुख की रश्मियों-सी दृष्टि-किरणें, छुवें हौले से मेरा कलिका कलेवर। खिल उठूँ मैं, खुल उठूँ मैं त्याग लज्जा, फिर बिखेरूँ रंग-सौरभ खिलखिला कर। चूम लो… मृदुल बातों से मुझे तुम चूम लो। मधुर मुरली की सुरीली तान-से मृदु शब्द तेरे शहद से घुलते श्रवण में। हो मदाकुल मगन-मन चंचल पवन-सी, नाचती चहुँ दिश फिरूँ, क्वण आभरण में। चूम लो… उष्ण साँसों से मुझे तुम चूम लो। सोख लेने दो मुझे इनकी तपन को, सिमटने दो सर्द भावों से लिपटकर। अरु पिघलने दो शिखर संकल्प हिम-से, फिर भिगो दूँ यह धरा शुचि वारि बनकर। चूम लो… हृदय-स्पंदन से मुझे तुम चूम लो। तृषित तन-मन आज मेरा चूम लो।। - राजेश मिश्र

मुक्तक

१) वाद-विवाद अनन्त है, सर्वश्रेष्ठ है कौन? आत्ममुग्ध जन-जन यहाँ, आप राखिए मौन।। २) बीते की चिन्ता नहीं, आगे की क्या जान? वर्तमान में मुदित मन, भजिये राम सुजान।। ३) राम-राम की रट रहे, श्याम रंग मन लीन। कृपा करेंगे कृपानिधि, जानि भक्तजन दीन।। ४) श्याम रंग यह गगन है, श्यामल धरती रूप। जड़-चेतन में व्याप्त है,, श्यामल रूप अनूप।। ५) राम अनादि अनंत प्रभु, सत्-चिद्-घन-आनंद। राम-नाम में रमि रहो, छाँड़ि सकल छल-छंद।। ६) पीन कलेवर वन करो, सूक्ष्माश्रम अभिराम। कारण कुटिया बैठकर, जपो राम का नाम।। पीन = स्थूल; सूक्ष्माश्रम = सूक्ष्म + आश्रम। ७) माधव की माया-नदी, विस्तृत ओर न छोर। इस तटिनी से तरण हित, थामो नाम की डोर।। ८) मोहन की मुरली मधुर, भरै हृदय में स्नेह। गोपिन श्रवणन ज्यों पड़ै, छाँड़ि चलैं निज गेह।। 9)  तरुवर पर हर वर्ष ज्यों, आये शिशिर-वसंत। मानव-जीवन में चले, सुख-दुख चक्र अनंत।। १०) बिन विचार के कर्म नहिं, सोच कर्म का मूल। सुविचारों को राखिये, दुर्विचार निर्मूल।। ११) मोर-पंख सिर पर धरे, उर वैजन्ती माल। सुभग-अधर-कर वेणु धर, सोहत हैं नँदलाल।। १२) मोहक मोहन-मुख-कमल, मोहित सब ससार। राखे हृदय सप्

अवध में, आये हैं रघुराई

तन-मन हरषें, अँखियाँ बरसें, चलहुँ दरस को भाई। अवध में, आये हैं रघुराई।। चहक रहे हैं पसु-पक्षी सब, कोयल मंगल गावैं। दादुर टर-टर मंत्र उचारें, मेह नेह बरसावैं। पवन सनन-सन चहुँ दिसि नाचत, अति अनंद उमगाई। अवध में, आये हैं रघुराई।।१।। कली-कली खिल फूल हुई हैं, रंग-सुगंध बिखेरें। धरती हरी-भरी हो मचले, मन आमोद घनेरे। मधुकारिन् मधुपर्क बनावैं, हरि कहुँ भोग लगाई। अवध में, आये हैं रघुराई।।२।। डगर-डगर मन मगन झूमतीं, ताल-नदी हरषाने। कूप-पोखरी उमग रहे हैं, बिटप-लता हुलसाने। धाये पुरजन, भरत-शत्रुघन, बिह्वल तीनों माई। अवध में, आये हैं रघुराई।।३।। - राजेश मिश्र

भारत माँ के शीलभंग की म्लेच्छों की तैयारी है

हाथ-पाँव वे काट चुके हैं,  सिर-धड़ की अब बारी है। भारत माँ के शीलभंग की, म्लेच्छों की तैयारी है।। भाँति-भाँति की नस्लें उनकी, तरह-तरह से वार करें। कुछ सर तन से जुदा करें, कुछ  परिवर्तन की आड़ धरें। वंचित जन को लक्ष्य बनाकर, कृत्य कलुष यह जारी है। भारत माँ के शीलभंग की, म्लेच्छों की तैयारी है।।१।। लव-जिहाद से बेटी हड़पें, बोटी-बोटी कर डालें। भू-जिहाद से खेती-बाड़ी, घर-मंदिर-मठ हथिया लें। थूक-मूत-चर्बी जिहाद से, धर्म-भ्रष्टता भारी है। भारत माँ के शीलभंग की, म्लेच्छों की तैयारी है।।२।। पहली नस्ल गरल विषधर-सी, और दूसरी अजगर सी। जैसे रक्षित हों संतानें, अपनायें विधियाँ वैसी। जीवन-मरण प्रश्न लघु छोड़ो, मूल-नाश की बारी है। भारत माँ के शीलभंग की, म्लेच्छों की तैयारी है।।३।। - राजेश मिश्र

प्रिय! तू तो अति हरजाई है

द्वय लंपट लोचन-चंचरीक, फिरते मानिनि-मुख-कमल-कमल, प्रिय! तू तो अति हरजाई है।। नित तेरी राह निहारूँ मैं, विरहा में रात गुजारूँ में। नव-अरुण संग हृद्! तेरे हित, नख-शिख तन कनक सँवारूँ मैं। मधुकर! क्यों भटके गलियों में? मधुरस ढूँढ़े नव-कलियों में? मधु-कलश मेरी तरुणाई है। प्रिय! तू तो अति हरजाई है।।१।। सम्मुख सात्विक आभोग पड़ा, तू रजस्-तमस् में क्यों जकड़ा? क्या व्यथा व्यथे तेरे मन को? क्यों शृंगाटक के केंद्र खड़ा? आबंथ-बंध ढह जाने दे, तन-मन व्यलीक बह जाने दे, अतिशय अतृप्ति दुखदाई है। प्रिय! तू तो अति हरजाई है।।२।। रख दे आ सिर अंक हमारे, स्नेहिल छुवन पीर हर लगी। मेरे कुन्तल की घन-छाया, सब आतप निज सिर धर लेगी। मर्दन भावों की नरमी का, सेचन साँसो की गरमी का, शुचि स्नेह सरस सुखदाई है। प्रिय! तू तो अति हरजाई है।।३।। - राजेश मिश्र

कवि नहीं हूं

हैं यहाँ कुछ बन्धु मेरे, साथ चलना चाहता हूँ। कवि नहीं हूं, मैं यहाँ बस, बात करना चाहता हूँ।। मैं उठाता शब्द-पुष्पों को धरा से, पुनि पिरोता भाव की मृदु डोरियों में। हार यदि फिर भी अपूरित रह गया तो, तोड़ लेता हूं सुमन कुछ टहनियों से। गूँथकर अर्पित पटल पर, हार करना चाहता हूँ। कवि नहीं हूं, मैं यहाँ बस, बात करना चाहता हूँ।। सुमन सुंदर हों, नहीं हों देखने में, सुरभि सुंदर मनस् में उनके बसी है। पुष्प का जीवन भले हो एक दिन का, बाँटता पर्यंत जीवन वह हँसी है। इस क्षितिज पर बस वही मैं, पुष्प बनना चाहता हूँ। कवि नहीं हूं, मैं यहाँ बस, बात करना चाहता हूँ।। मैं अपरिचित छंद-रस-आभूषणों से, निधि है सुदामा-पोटली लघु काँख में। दैन्यता अति मथ रही मेरे हृदय को, अश्रु लज्जा से भरे हैं आौख में। जो मिला इस समिति से प्रति- दान करना चाहता हूँ। कवि नहीं हूं, मैं यहाँ बस, बात करना चाहता हूँ।। - राजेश मिश्र

दुख तभी होगा पथिक! जब चाह होगी

चित्त चंचल में विकल इक आह होगी। दुख तभी होगा पथिक! जब चाह होगी।। इस अनृत ससार में अनुरक्त होगा! चर-अचर के प्रेम में आसक्त होगा! आज यदि तू स्नेह का भागी बना है, है सुनिश्चित कल पुनः परित्यक्त होगा। मन व्यथित, हृद् में नहीं उत्साह होगी। दुख तभी होगा पथिक! जब चाह होगी।। कौन, कब, किसका रहा है इस धरा पर? स्वार्थ-प्रेरित नित नये सम्बन्ध बनते। छूट जाते, टूट जाते चटककर यदि, वासना द्वय-पक्ष की नहिं पूर्ण करते। आचरण अनुकूल ईप्सित वाह! होगी। दुख तभी होगा पथिक! जब चाह होगी।।१।। सित-असित कर्मों के फल सारे बँधे हैं, पुण्य हो या पाप सब कुछ भोगना है। और संचित शेष रह जाये यहाँ यदि, फिर वही गठरी उठाकर लौटना है। चक्र संसृति का वही पुनि राह होगी। दुख तभी होगा पथिक! जब चाह होगी।।२।। इस भँवर से मुक्ति की बहु युक्तियाँ हैं, योग कर, नित भक्ति कर, आराधना कर। कर्मफल कृत कृष्ण को नित कर समर्पित, द्वंद्व सह निर्द्वंद्व हो नित साधना कर। दग्ध-दुख हो, प्रभु-चरण में ठाह होगी। दुख तभी होगा पथिक! जब चाह होगी।। - राजेश मिश्र

लक्ष्य-वेध हित चलना होगा

पत्थर की ठोकर भी होगी, और बिछेंगे फूल भी… फिर भी आगे बढ़ना होगा। लक्ष्य-वेध हित चलना होगा।। पथरीले पथ पर बढ़कर ही, घासों के मैदान मिलेंगे। बलखाती नदियों के उद्गम, झरनों के अवसान मिलेंगे। नरम दूब की सेज सजेगी, और चुभेंगे शूल भी… फिर भी आगे बढ़ना होगा। लक्ष्य-वेध हित चलना होगा।।१।। स्निग्ध स्पर्श समीर का होगा, अरु लू के तपते ताने भी। सुमन-सुरभि के भाव मिलेंगे, चारण भ्रमरों के गाने भी। मीठे जल का स्नेह मिलेगा, अपमानों की धूल भी… फिर भी आगे बढ़ना होगा। लक्ष्य-वेध हित चलना होगा।।२।। चलते-चलते गिर जायें यदि, द्विगुणित बल से उठना होगा। नव ऊर्जा संचार हेतु तन, तरु-छाया में रुकना होगा। कुछ अप्रतिम निर्णय भी होंगे, अरु होगी कुछ भूल भी… फिर भी आगे बढ़ना होगा। लक्ष्य-वेध हित चलना होगा।।३।। - राजेश मिश्र

बचवा भुखाइल बा

तड़पति महतारी बेकलि, काम ना ओराइल बा। कइसे के जाईं घरवाँ, बचवा भुखाइल बा।। दुइयऽ महिनवाँ के बा, बाबू जनमतुआ। पेटवा के आगि अइसन, छोड़ीं कइसे खेतवा। खेते-खरिहाने में ही, जिनगी ओराइल बा। कइसे के जाईं घरवाँ, बचवा भुखाइल बा।। पियले भिनहियँ के बा, पेट कुकुहाइल होई। टोला-महल्ला सुनि के, रोवल घबराइल होई। भोरवँ क आइल दिनवाँ, माथे नियराइल बा। कइसे के जाईं घरवाँ, बचवा भुखाइल बा।। ससुर'-सासु, जेठ-देवर, रहलें अलगाई। घरे में सयान नाहीं, खेते लेके आई। झिनकी भी लइके हवे, लेके अफनाइलि बा। कइसे के जाईं घरवाँ, बचवा भुखाइल बा।। - राजेश मिश्र

ईश्वर का वरदान है बेटी

जाति-धर्म मर्यादा खोटी, देश-राष्ट्र की सीमा छोटी, हर घर का सम्मान है बेटी। ईश्वर का वरदान है बेटी।। कुल की लक्ष्मी, कुल की देवी, वंश-बेलि की पोषक बेटी। लघुतम हो या अति विशाल हो, हर विपदा अवशोषक बेटी। एक की बेटी कुल की बेटी, घर की बेटी गाँव की बेटी, सबकी ही सन्तान है बेटी। हर समाज की आन है बेटी।।१।। बेटी बेटी, बहन भी बेटी,  अनुज-वधू, सुत-वधू है बेटी। माँ-पत्नी या दादी-नानी, सब रूपों में बेटी-बेटी। चाचा-मामा, दादा-नाना, सब सम्बन्धी सभी घराना, भैया का प्रिय प्राण है बेटी। और पिता का मान है बेटी।।२।। बेटी दुर्गा, बेटी काली, बेटी उमा, रमा अरु वाणी। बेटी ही सीता-सावित्री, बेटी ही झाँसी की रानी। गंगा बेटी, यमुना बेटी, सरस्तीव-सरयू भी बेटी, परम-पूज्य प्रतिमान है बेटी। सृष्ट्याधार प्रधान है बेटी।।३।। - राजेश मिश्र 

अपनी अलकों से कह दो तुम

काली घुंघराली मतवाली, अपनी अलकों से कह दो तुम, मुख शरत्चंद्र से मत खेलें… होठों की कोमल कलियां जब हौले-हौले मुस्काती हैं। लंपट लोलुप अलि अलकें तब, मथुरस पीने आ जाती हैं। उन्मत उच्छृंखल अरु अशिष्ट, कह दो इन चूर्णकुन्तलों से, युग अरुण-अधर से मत खेलें… गंगोत्री-सी आंखें तेरी, जब सुरसरि स्नेह बहाती हैं। मकरध्वज दग्ध हृदय मेरा, जब सिंचित करने आती हैं। आबंध-भाव-धारा बाधक, काकुल झुंडों से कह दो तुम, युग नयन-नलिन से मत खेलें… परिच्युत परित्यक्त पतित-पथगा, चूमें कानों की बाली को। कटि-कंध-ललाट-चिबुक चूमें, चूमें गालों की लाली को। लटकी लहराती बलखाती, इन भ्रष्ट लटों से कह दो तुम, मृदुलांगों से ये मत खेलें… - राजेश मिश्र

अब बहुत हुआ, अब और नहीं

कब तक हम सहते जाएंगे? एकांगी शांति निभाएंगे? यह चुप रहने का दौर नहीं, अब बहुत हुआ, अब और नहीं।। वे घर में घुसते आते हैं, हम चुप रह, सब सह जाते हैं। सब सहकर भी, चुप रहकर भी, हम ही दोषी कहलाते हैं।  वे मारें, हम मरते जाएं, हम मरने से डरते जाएं, किससे हमने यह सीखा है?  क्या यह पुरखों की शिक्षा है? राणा प्रताप की संतानें, भोजन का कोई कौर नहीं।। यह चुप रहने का दौर नहीं, अब बहुत हुआ, अब और नहीं।।१।। अन्याय न कुछ कहना भी है , अन्याय सदा सहना भी है, कुल-राष्ट्र-धर्म की सेवा में, अन्याय न रत रहना भी है। अन्यायी का हम काल बनें, कुल-राष्ट्र-धर्म की ढाल बनें, दुनिया सदियों तक याद करे, हम ऐसी एक मिसाल बनें। अब तो तलवारें खनक उठें, उत्पाती को अब ठौर नहीं। यह चुप रहने का दौर नहीं, अब बहुत हुआ, अब और नहीं।।२।। - राजेश मिश्र

हे मोहन मुरली वाले

हे मोहन! मुरली वाले! हे भक्तों के रखवाले! हे नाथ! कृपा कर दो। हम प्यासे भटक रहे हैं, जगती के मरुथल में। पर मिले कहां से तृप्ति, मृग-मरीचिका जल में। हे भव-दुख हरने वाले! दे भक्ति-सुधा-रस प्याले, अब तृप्त तृषा कर दो। तुमसे ही तपन तपन की, निशिपति भी शीतल हैं। धरती का धैर्य तुम्हीं से, तुमसे समीर-बल है। हे सर्जक! पालनहारे! संहारक तुम्हीं मुरारे! प्रभु पाप-ताप हर लो। तुम निराकार निर्गुण हो, अरु साकार-सगुण भी। हो दृष्ट-अदृष्ट सभी तुम, पूर्ण तुम्हीं, तुम कण भी। हे सृष्टि-प्रलय के स्वामी! जगदीश्वर अन्तर्यामी! निज चरण-शरण रख लो। - राजेश मिश्र

बरबस समाधि लग जाती है

तेरी अल्हड़ पदचापों पर, छम-छम-छम करती पायल पर, बरबस समाधि लग जाती है… जब-जब तू सम्मुख आती है, बनकर बसंत छा जाती है। मन मुग्ध मुदित हो जाता है, बन प्राण मुझे महकाती है। तेरे परिपूरित यौवन पर, कंचन-काया-मद-सौरभ पर, बरबस समाधि लग जाती है… जब कानों में कुंडल झूमें, नासा को मुक्तामणि चूमे। भुज-द्वय से अंगद केलि करें, उन्मुक्त हार उर पर घूमे। कटि-किंकिणि पर, कर-कंकण पर, बिंदी-टीका-चूड़ामणि पर, बरबस समाधि लग जाती है… जब चपल-चक्षु के चंचरीक, मुखमंडल पर मंडराते हैं। हृदयोत्पल के मधु भावों पर, ज्यों अपनी सूंड़ गड़ाते हैं। पाटल-प्रवाल से अधरों पर, गालों की अरुणिम आभा पर, बरबस समाधि लग जाती है… निर्मल मन से मधु छन-छन जब, वाणी से निर्झर झरता है। द्वय श्रवण-सरोवर से बहकर, अंतरतम सिंचित करता है। कोयल सी मीठी बोली पर, मदमाती हंसी-ठिठोली पर, बरबस समाधि लग जाती है… - राजेश मिश्र

आखिर अंकुर फूट पड़ा है

नवजीवन संचार हुआ है, भूमि सतत सींचे जाने से।  आखिर अंकुर फूट पड़ा है, धरती में सोये दाने से।। निष्फल वृक्ष रहे या जाये, बीज सुरक्षित रखना होगा। श्रुति-संस्कृति-अस्तित्व हेतु नित, हिम-आतप सब सहना होगा। विटप विशाल उखड़ जाते हैं, झंझावातों के आने से। आखिर अंकुर फूट पड़ा है, धरती में सोये दाने से ।।१।। एक-एक कर टूट न जायें, मुट्ठी बनकर रहना होगा। प्रबल-प्रवाह न निर्बल होवे, एक दिशा में बहना होगा। विद्युत-शक्ति न शेष बचेगी, धाराओं में बँट जाने से । आखिर अंकुर फूट पड़ा है, धरती में सोये दाने से ।।२।। ग्रहपति का परिचय आतप से, शशधर का शीतलता से है। भारत का परिचय संसृति में, सत्य सनातन सत्ता से है। वंश हमारा मिट जाएगा, धर्म सनातन मिट जाने से। आखिर अंकुर फूट पड़ा है, धरती में सोये दाने से ।।३।। - राजेश मिश्र

पाप ई तुहार बा

सुनलऽ हमार कब तूंऽ? कइसे तुहंके रोकीं? पाप ई तुहार बा तऽ, हम काहें भोगीं? कब हम कहलीं तुहंसे, माई-बाप छोड़ि दऽ? भाई-बहिनि-संगी-साथी, सबसे मुंह मोड़ि लऽ? जिद ई तुहार रहल, तुहीं हव दोषी। पाप ई तुहार बा तऽ, हम काहें भोगीं? लइके तऽ कहलं नाहीं, अलगे हमके पालऽ। सीना कऽ बोझ अपने, खुद ही संभालऽ। अंड़सा तऽ तुहंके कइसे, उनहन के कोसीं? पाप ई तुहार बा तऽ, हम काहें भोगीं? अबहिन भी एतना साजन, बिगड़ल नऽ बाट। माई-बाप हवं आखिर, भलहीं ऊ डांटं। पंउआं पे सीस धरतऽ, राखि लिहंऽ गोदी। पाप ई तुहार बा तऽ, हम काहें भोगीं? - राजेश मिश्र

संगठन की शक्ति

धन्य! धन्य! देवभूमि, धन्य! तेरे वीर पुत्र, शत्रु  के समक्ष वक्ष, तानकर खड़े हैं। चेतन हुआ समाज, खौल रहा रक्त आज,  अंत आतंक का अब, करना है अड़े हैं।। दुश्मन ने देखा दम, पीछे खींचा है कदम, हुआ दर्प चूर-चूर, ढीले कस पड़े हैं। जड़ नहीं चेतन में, है शक्ति संगठन में, खड़ी जीत आंगन में, मिलकर लड़े हैं।। - राजेश मिश्र

कहो कान्हा? करोगे कैसे तुम उद्धार?

कहो कान्हा! करोगे कैसे तुम उद्धार? तुमको तो दधि-माखन प्यारा,  ढूँढो हर घर-द्वार। मेरे घर नहिं गाय न बछिया,  नहिं कुछ अन्य अधार। कहो कान्हा! करूँ कैसे स्वागत-सत्कार? कहो कान्हा! करोगे कैसे तुम उद्धार? तुम तो भक्ति-भाव के भूखे,  पियो भक्ति-रस-धार। ज्यों ही भक्त पुकारे तुमको,  पहुँचत लगे न बार। सुनो कान्हा! नहीं मुझमें वह अमृत धार। कहो कान्हा! करोगे कैसे तुम उद्धार? कलि कलुषित कुत्सित कपटी मन,  किये हैं पाप अपार। काम-क्रोध-मद-मोह-लोभ सब,  भरे पड़े हैं विकार। कहो कान्हा! तुमसे सँभलेगा यह भार? कहो कान्हा! करोगे कैसे तुम उद्धार? - राजेश मिश्र

छू गई वह एक मृदु मुस्कान से

छू गयी वह एक मृदु मुस्कान से।। छू लिया हो भ्रमर को सौरभ सुमन ने, पर्वतों की चोटियाँ प्रातःशिखा ने। निर्झरी की देह को चञ्चल पवन ने, गहन काली शर्वरी को चन्द्रिका ने। कर गयी शर-विद्ध भृकुटि-कमान से।। छू गयी वह एक मृदु मुस्कान से।। कौंधकर सम्मुख अचानक दामिनी सी, कृष्ण-कुन्तल-सघन-घन में खो गयी पुनि। बस गयी हत हृदय में वह दिव्य मूरत, मेनका के भाव में भावित हुये मुनि। च्युत हुए हैं गाधिनन्दन ध्यान से।। छू गयी वह एक मृदु मुस्कान से।। खन-खनकते शब्द मधुरस में पगे से, प्रतिध्वनित ज्यों  श्रोत्र-द्वय में श्रुति-ऋचायें, हृदय की गहराइयों से प्रकट पावन, मन्दिरों में गूँजती हों प्रार्थनाएंँ। कर्ण झङ्कृत हो उठे मधु तान से।। छू गयी वह एक मृदु मुस्कान से।। - राजेश मिश्र

उपजी न कहीं कविता मन में

कवि कबसे बैठ विचार रहा, ढूँढ़े सारे जड़-चेतन में। उपजी न कहीं कविता मन में।। ढूँढ़े सन्तप्त सूर्य-कर में, शीतल सुधांशु की छाया में। ढूँढ़े झिलमिल ताराङ्गण में, वसुधा की श्यामल काया में। उद्वेलित सिन्धु तरङ्गों में, चञ्चल समीर के नर्तन में। उपजी न कहीं कविता मन में।। उत्तुङ्ग अचल गिरि-श्रृङ्गों में, नदियों के उर्वर समतल में। अति दुर्गम दुसह पठारों में, निष्फल निस्तेज मरुस्थल में। सर, सरि, सुग सरित् सरोवर में, गृह-ग्राम-नगर-वन-उपवन में। उपजी न कहीं कविता मन में।। शुचि वेदों में, वेदाङ्गों में, दर्शन, आगम सब ग्रन्थों में। पशु-पक्षी-कीट-पतङ्गों में, तरुणी के कोमल अङ्गों में। जीवन के सित-तम भावों में, गोचर संसृति के कण-कण में। उपजी न कहीं कविता मन में।। - राजेश मिश्र